लघु कथा
अमावस की अँधेरी रात! मैं अकेली पगडंडियों से होती हुई गाँव की ओर जा रही थी। हाथ में एक बैग और दूसरे हाथ में टॉर्च। लगभग 2 कि. मी. जाना था। मैं मन से थकी-सी। कोई आसपास भी नहीं।लगा एक साया! कोई मेरा पीछा तो नहीं कर रहा है, सोचकर मैं घबराने लगी, अनहोनी के डर से जाड़े की उस रात में माथे पर पसीना। अनायास मेरे मुँह से निकला-कौन?तबतक वो पास आ चुका था। जी मैं ..मैं आशीष!कौन आशीष? वह सामने खड़ा हो गया। झुक कर मेरे पैर छूने लगा।अरे ठीक है?”नहीं मैम, मुझे आपका आशीर्वाद चाहिये” कहता हुआ उसने मेरे पैर छुए।मैंने भी उसे आशीर्वाद दिया। मुझे तसल्ली हुई और बेहद शान्ति मिली।”लेकिन मैं पहचान नही पाई”..”जी आप शायद मुझे भूल गईं मैम.. मैं आपका आशू.. याद कीजिये शायद ..अरे हाँ.. तुम आशू.. मैंने टॉर्च लाइट में उसे पहचानने की कोशिश की…फिर धुँधला- सा याद आया…यह तो आशू लगता है..प्यारा सा बच्चा ..जो …मैम आप को मैनें सड़क पर बस से उतरते देखा। पहले तो मैं समझ नहीं पाया ..कहते हुए उसने मेरा बैग अपने हाथों ले लिया और आवाज लगाई..अरे करीम.. जी साब! उधर से आवाज आई।बैग लो…मैम आप इधर..यहीं पास में मेरा गाँव है.. मैनें कहा। तुम यहाँ?मैं एस. डी. एम…आपका आशू।आप चलिए थोड़ा आराम कीजिये मैं सारी व्यवस्था करता हूँ।वो मुझे ले गया और अपनी प्यारी- सी पत्नी और बच्ची से मिलवाया..उसने कहा- मिलो मेरी उस माँ से जिसने मुझे ..अरे क्या बात है आशू..बातें हुईं .आँखें भर आईं..उसने जिद्द की कि मैं सुबह जाऊँ..लेकिन मैं समझा कर इस वादे के साथ कि शीघ्र आऊँगी.. अपने गाँव की ओर प्रस्थान कर गई। उसने स्वयं मुझे मेरे घर तक छोड़ा।मैं सोचती रही, मेरा शिक्षक धर्म मुझे कितना कुछ देता है। मेरा यह विद्यार्थी पढ़ने के काल में एक सामान्य विद्यार्थी की तरह किंतु शिष्ठ और मिहनती। मैंने भी इसे अपनापन और लग्न दिया जो सामान्यतः सभी शिक्षक अपने विद्यर्थियों को देते हैं। अमावस की वह रात एक शिक्षक के स्वयं से परिचय की रात थी।
स्नेहलता द्विवेदी “आर्या”
उत्क्रमित कन्या मध्य विद्यालय शरीफगंज, कटिहार