स्मर छठ घाट की : अरविंद कुमार

रात के दस बजे थे । दिल्ली स्टेशन पर भारी भीड़ जमा थी । ट्रेन के इंतजार में कोई सीढ़ी पर बैठा था तो कोई बेंच पर जिसे जगह नहीं मिली थी वो नीचे पन्नी बिछाकर लेटे थे । इसमें सबसे ज्यादा बिहारी मजदूरों की संख्या थी ,जो छठ पर्व में घर लौट रहे थे । भरगामा का मजदूर विकास अपने गांव के ही दोस्त रंजन को स्टेशन छोड़ने आया था । पर्व में घर लौटने की खुशी से रंजन का चेहरा खिला हुआ था , बिल्कुल ओस में नहलाये हुए गुलाब की पंखुड़ी की तरह….।

“हो.. चलो..न.. विकास.. तुम.. भी..अरे..किसी..तरह.. जेनरल .. में लटक..फटक..कर..घर..चले.. जाएंगे.. दोनों..आदमी..।”

“नहीं..यार.. बड़ी.. मुश्किल..से..काम..मिला..है..छठ..में..घर.. चलें..गये..तो.. ठिकेदार..काम..से..हटा..देगा..।” विकास के स्वर में उदासी थी।

” ठीक है, रंजन तब हम चलते हैं , अच्छे से जाना।” इतना कहकर विकास वापस अपने क्वार्टर के लिए निकल पड़ा। मगर स्टेशन पर ढेरों मोबाइल में बजते छठ पर्व का गीत सुनकर उनकी आंखें डबडबा आई । पैर मन भर भारी लगने लगे । उसे याद आने लगा अपना गांव, उसकी हरियाली,छठ घाट को अपने हाथ से सजाना , मां के हाथ का बना ढेकवा, पूरी, पकवान, सूप से सजी डाला को लेकर पैदल घाट तक पहुंचना, छठ ब्ररती मां -बहनों की लम्बी कतारों के बीच छठ की सुमधुर गीत और टयुब लाइट की दुधिया प्रकाश में नहलाता हुआ पूरे घाट का विहंगम दृश्य, बच्चों की खूशी , पटाखों की आवाजें।

तभी उसके फोन की घंटी ने उसका तंद्रा भंग किया ।
‘हेलो”
“हां बोलो”
दूसरी तरफ उसकी पत्नी सुलोचना लाइन पर थी ,उसके साथ ही उसके बच्चें भी मां का आंचल खिंच रहे थे उन्हें भी अपने पिताजी से बात करने की बड़ी जल्दी पड़ी थी।

“पैसा भेज दिये है रंजन के मार्फत, छठ का सब समान ख़रीद लेना , मां हाथ उठाएगी तो उनके लिए एक सूती साड़ी खरीद लेना।

” .उहं. मोबाइल. कैसे. झपटता है , इ. छौरा. बात. भी. नहीं. करने. देता. है , लो .तुम्हीं. बात करो। सुलोचना खीजते हुए फोन अपने बेटे रमन को थमा दी।

“बाबा. फटक्का. के. लिए. पैसा भेजिये, घाट .पर. फोड़ेंगे।”

अच्छा . अच्छा.ठीक.है., पैसा. भेज. दिये. है. कल. खरीद .लेना।
अभी .हम. भीड़ .में. है, बस. पकड़ रहे. है , फ़ोन. रखो. क्वार्टर .पहुंचते हैं, तब .करना।

विकास अपने क्वार्टर के लिए बस पकड़ चुका था, शरीर बस में थी मगर आत्मा घर पर थी । उसने रुमाल निकालकर अपने आंसू पोंछे, फिर खिड़की से बाहर शुन्य में कुछ निहारने लगा मानो खूद को दिलाशा देने की कोशिश कर रहा हो । विकास को देखकर ऐसा लग रहा था मानो छठ बिहार का सिर्फ पर्व ही नहीं बल्कि उसका इमोशन भी है ।

अरविंद कुमार

भरगामा,अररिया

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