(एक शिक्षक की आत्मीय यात्रा)
लेख विधा :- संस्मरण
कुछ रिश्ते शब्दों से परे होते हैं, और कुछ पलों की आवाजें जीवनभर की गूंज बन जाती हैं। आज का दिन मेरे शिक्षक जीवन की उन स्मृतियों में जुड़ गया है, जो जीवनभर मेरे हृदय में जीवित रहेंगी।
“शिक्षक होना सिर्फ एक पेशा नहीं, वह एक आत्मीय रिश्ता है – जो बच्चों की आँखों से होकर आपके हृदय में उतर जाता है।”
मेरे शिक्षक जीवन की शुरुआत एक नवागत शिक्षक के रूप में थोड़ी झिझक, थोड़ी उत्सुकता और मन में बहुत सारे सपनों के साथ उत्क्रमित उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, नरसिंहवाग, मधेपुरा से हुई। उस समय यह परिसर मेरे लिए केवल एक कार्यस्थल था, पर धीरे-धीरे यह मेरा परिवार बन गया। इस माध्यमिक विद्यालय में हिंदी शिक्षक के रूप में लगभग डेढ़ वर्ष पूर्व योगदान किया था। यह मेरी पहली नियुक्ति थी, लेकिन यकीन मानिए, यह सिर्फ नौकरी नहीं थी, यह मेरी पहली “कक्षा” थी जीवन की – जहाँ मैंने न सिर्फ पढ़ाया, बल्कि खुद भी बहुत कुछ सीखा।
विद्यालय, घर से 40-45 किलोमीटर दूर था। इसी कारण कुछ महीने पहले दूरी और पारिवारिक जिम्मेदारियों को देखते हुए मैंने स्थानांतरण के लिए आवेदन किया था। स्थानांतरण की प्रक्रिया के बीच में हीं विभाग ने पारस्परिक स्थानांतरण पर सहमति दी, और संयोगवश मेरे घर के पास ही पारस्परिक स्थानांतरण हेतु शिक्षक मिल गए और हमदोनो ने एक दूसरे के साथ कार्यस्थल अदला-बदली के लिए आवेदन कर दिया , और महज़ सात दिनों में स्वीकृति भी मिल गई। विभाग द्वारा विद्यालय में योगदान देने का पत्र मिलते ही मन विदाई के भाव से भर उठा।
14 अगस्त 2025 को मैंने इस विद्यालय अपना अंतिम अध्यापन दिवस पूर्ण किया। अगले दिन स्वतंत्रता दिवस की ध्वज-लहराती सुबह, 16 अगस्त की कृष्ण जन्माष्टमी की मधुर छुट्टी और 17 अगस्त का शांत रविवार – ये सब मानो एक बदलाव से पहले की अंतिम स्मृतियाँ थीं। फिर 18 अगस्त को, नई उम्मीदों और पुरानी यादों को साथ लेकर, मैंने नव-आवंटित विद्यालय में योगदान दिया।
घर के पास के विद्यालय में जाने की ख़ुशी तो थी लेकिन हृदय के किसी कोने में यह भी डर था कि क्या वह अपनापन फिर से मिलेगा ।
छात्रों को जब यह जानकारी मिली कि सर अब जा रहे है,सर का स्थानांतरण हो गया तो सबकी आंखें नम हो गयी ।
15 अगस्त के स्वतंत्रता दिवस समारोह के बाद छात्र मेरे पास आकर अपने-अपने ढंग से स्नेह व्यक्त कर रहे थे। कोई रोते-रोते मेरी हथेलियों में प्यार से लाया हुआ उपहार रख रहा था, तो कोई पास खड़ा रहकर आँसू पोछ रहा था। उन उपहारों में वस्तु से अधिक बच्चों का निस्वार्थ प्रेम और अपनापन समाया था।
एक छात्र ने पूछा-
“सर! क्या आप हमें कभी नहीं पढ़ाएँगे…?”
मेरे पास जवाब नहीं था, लेकिन एक मुस्कान थी… और शायद वह मुस्कान उनसे कह रही थी:
“पढ़ाने से बढ़कर, तुम सबने मुझे पढ़ाया है -जीवन का सबसे सुंदर पाठ।”
एक शिक्षक की सबसे बड़ी उपलब्धि न कोई प्रमाणपत्र, न पुरस्कार, न ही प्रशासनिक प्रशंसा ।
एक शिक्षक की सबसे बड़ी उपलब्धि है – जब बच्चे आपको रोकने लगें, जाने न देने की ज़िद करें, और रोते हुए कहें कि ‘सर, आप जैसे कोई नहीं ।
सहयात्रा के वे पल . . .
विदाई के इन भावपूर्ण क्षणों में कुछ चेहरे और यात्राएँ ऐसी हैं, जो बार-बार स्मृति में लौटती हैं। विद्यालय तक मेरी हर सुबह की यात्रा केवल दूरी तय करना नहीं था, वह अपने आप में एक जीवंत पाठशाला थी -जीवन के अनुभवों की।
घर से लगभग 30 किलोमीटर की यात्रा मैं बस से करता था, फिर शेष 15 किलोमीटर की दूरी विद्यालय के मेरे सहकर्मी कार्तिक जी के साथ तय होती थी। उनके साथ की गई वह यात्रा केवल मार्ग की साझेदारी नहीं थी – बल्कि मन की संगत थी। इन यात्राओं में कोई बड़ी बातें नहीं होती थीं- पर छोटी-छोटी बातों में एक विशेष आत्मीयता थी। कभी विद्यालय की व्यवस्थाओं को कैसे बेहतर बनाया जाए, कभी घर-परिवार और जीवन के उतार-चढ़ाव, तो कभी संघर्ष के बीते दिन – हमारी बातचीत का हिस्सा बनते।
कार्तिक जी से मेरी पहली मुलाकात उनके इस विद्यालय में योगदान के दिन ही हुई थी। एक साधारण औपचारिकता से शुरू हुआ रिश्ता धीरे-धीरे मित्रता के एक सुंदर बंधन में बदल गया। वह मित्रता अब शब्दों की नहीं, समझ की भाषा बोलती है। इन यात्राओं ने केवल रास्ते नहीं पार किए, बल्कि अनेक मौन क्षणों को भी स्वर दिया।
टिफ़िन का स्वाद और चुप्पियों का संवाद . . .
पहली पोस्टिंग का विद्यालय मेरे लिए सिर्फ एक नौकरी की शुरुआत नहीं था, वह एक आत्मीय संसार था – जहाँ हर दिन कुछ नया सीखने को मिलता, और यह सीख केवल छात्रों से नहीं, सहकर्मियों से भी मिलती थी।
सुष्मिता मैम… उनका नाम लेते ही आज भी टिफ़िन की ख़ुशबू और अपनापन मन में उमड़ आता है। मध्यांतर में जब हम सब साथ बैठते, तो उनके टिफ़िन पर मानो हम सबका सहज अधिकार था। उनका स्नेह और सौम्यता ही ऐसी थी कि खाने के साथ-साथ वह अपनापन भी परोसती थीं। कभी-कभी लगता, जैसे वह डिब्बा किसी सहकर्मी का नहीं, माँ के हाथ की रसोई से आया कोई स्नेहभरा संदेश हो। हम सभी, बिना कहे ही, उस स्वाद और स्नेह में सम्मिलित हो जाते।
और सूरज जी – एकदम अपने नाम जैसे शांत, स्थिर और आत्मीय। कम बोलते थे, पर उनका मौन भी अपनेपन से भरा होता। जब कार्तिक जी छुट्टी पर होते, तो मैं सूरज जी के साथ ही विद्यालय आता-जाता ।कभी-कभी,जब शरीर थक जाता और मन भी बोझिल होता,तो मधेपुरा में उनका कमरा मेरे लिए किसी आरामगाह से कम नहीं होता था । चाय की प्याली, दो-चार बातें और एक सन्नाटा – जिसमें आराम भी था और भरोसा भी ।
कुछ रिश्ते ताज़ा रोटी की तरह होते हैं – साधारण, गरम, पर जब बाँटे जाते हैं तो आत्मा तक को स्वाद देते हैं।
विद्यालय के पूर्व प्रभारी प्रधानाध्यापक सतीश सर का उल्लेख किए बिना यह संस्मरण अधूरा है। जब मैं इस विद्यालय में योगदान किया था उस वक़्त प्रभारी प्रधानाध्यापक के रूप में उनका सहज हास्य, सरल व्यवहार और नेतृत्व की स्पष्टता ने विद्यालय को केवल एक संस्था नहीं, एक परिवार बना दिया। उनका मज़ाकिया अंदाज़, गंभीर से गंभीर परिस्थिति को भी मुस्कान में बदल देता था।
विद्यालय के नए प्रधानाध्यापक ललन सर . . .
विद्यालय में कार्यकाल के अंतिम महीनों में ही ललन बाबू का प्रधानाध्यापक के रूप में योगदान हुआ। उनका व्यक्तित्व ऐसा था कि औपचारिकता की कोई दीवार बीच में खड़ी नहीं होती थी। चेहरे पर हमेशा एक हल्की-सी मुस्कान, बोलचाल में सहजता, और हर किसी से सम्मानजनक व्यवहार – यही उनकी सबसे बड़ी पहचान थी।
वे न केवल प्रशासनिक कार्यों में कुशल थे, बल्कि मानवीय दृष्टिकोण से भी बेहद संवेदनशील थे। किसी भी शिक्षक या छात्र की समस्या को सुनना, तुरंत समाधान के लिए पहल करना, और हर परिस्थिति में सकारात्मक दृष्टिकोण रखना – यह उनकी कार्यशैली का हिस्सा था। सबसे खास बात, वे कभी ‘प्रधानाध्यापक’ बनकर आदेश नहीं देते थे, बल्कि ‘वरिष्ठ सहकर्मी’ बनकर सुझाव देते थे।
विद्यालय में मेरे साथ कार्यरत सभी सहकर्मियों ने केवल सहयोगी की भूमिका नहीं निभाई, बल्कि एक परिवार जैसा स्नेह, मार्गदर्शन और अपनापन दिया। उनके साथ बिताए पल अब स्मृति बन गए हैं – मौन समर्थन, मधुर मुस्कानें और साझा जिम्मेदारियाँ… जो जीवनभर साथ रहेंगी।
भले ही अब हमसभी भिन्न-भिन्न विद्यालयों में कार्यरत हैं, पर जो रिश्ता उन दीवारों के बीच बना, वह वर्षों तक जीवित रहेगा।
इन सहयात्रियों ने मुझे सिखाया कि विद्यालय केवल ईंट और गारे की इमारत नहीं होता,वह उन रिश्तों की जीवंत संरचना है, जो जीवन भर साथ चलती है।
यह सिर्फ विदाई नहीं थी… यह स्मृति की संधि थी।
मैं वहाँ शिक्षक बनकर गया था, पर लौटते समय एक पिता, एक मित्र, एक पथ-प्रदर्शक बन गया।
यह लेख एक शिक्षक की ओर से उस विद्यालय, उन दीवारों और उन बच्चों को समर्पित है,
जिन्होंने Chalk और Duster के बीच मेरे जीवन का सबसे सुंदर चित्र रचा।
चन्दन कुमार उर्फ मनीष अग्रवाल
विद्यालय अध्यापक
( उच्च माध्यमिक विद्यालय ,कुमरगंज, मधेपुरा,बिहार )