लोग का कही: सामाजिक परिवर्तन का संदेश- मो. ज़ाहिद हुसैन

सामाजिक परिवर्तन कैसे लाया जा सकता है? सामाजिक कुरीतियों और रूढ़ियों को कैसे तोड़ा जा सकता है? इस सवाल का जवाब प्रस्तुत करता हैं, डॉ. लक्ष्मीकान्त सिंह का उपन्यास ‘लोग का कही’। डॉ. सिंह, जो एक अच्छे साहित्यकार, शिक्षाविद् एवं इतिहासकार के रूप में ख्यात हैं। उनका अंदाज़-ए-बयां हिंदी जरूर है, लेकिन इसमें अभिनव प्रयोग वाला दृष्टांत शुद्ध रूप से भोजपुरी प्रकृति की है। भाषा हो या बोली, दोनों ही संप्रेषण का माध्यम है। बोली का क्रमिक विकास ही तो भाषा है, जो लिपि से समृद्ध होकर साहित्य की रचना करती है; जो लोगों की जिंदगी का आईना होता है। यह उपन्यास इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि भाषा और साहित्य के दरार को भरने का काम करता है। बोलियां तो इतनी ताक़तवर होतीं हैं कि उनकी एक-एक उक्ति, जिंदगी की दास्तान कहती है। इंसान को अपनी मिट्टी की सोंधी महक को हमेशा महसूस करनी चाहिए। मिट्टी प्रेरणा देती है कि तुम्हारी जड़ें कितना मज़बूत हैं। इंसान के मस्तिष्क में हमेशा इस बात का डर रहता है कि यदि हम कुछ नया करेंगे तो लोग क्या कहेंगे। यहां उपन्यासकार इसे ही समझाने का प्रयास करता है कि जो आपकी अंतरात्मा एवं विवेक कहे, वही करो; चाहे दुनिया जो कहे। क्या राजा राममोहन राय, ईश्वर चंद्र विद्यासागर या फिर बाबा साहब को  समाज ने बख़्शा था?  नहीं न। तो क्या उन्होंने अपना संघर्ष छोड़ दिया था, यह कहते हुए कि ज़माना क्या कहेगा,ढिमकाना क्या कहेगा? यदि वे पीछे हट जाते तो  समाज में हाशिए पर खड़े लोगों का कायापलट हो पाता? बिल्कुल नहीं? लेखक, सदैव बेहूदा रस्मो रिवाज के झंझाबातों से निकलने में मदद करता है। समाज में बैठे, अपसंस्कृति के पोषक पैरासाइट; लोगों के दिमागी दिवालियेपन का फायदा उठाते हैं,उनका दोहन करते हैं। धर्म उनका धंधा होता है, जिससे वे अपना उल्लू सीधा करते हैं। क्या जाहिल, क्या पढ़ा लिखा? सब परंपराओं के गिरफ्त में होते हैं।
    एक कहावत है: देखा देखी पाप, देखा देखी पुण्य। लोग करते जाते हैं, रांग-राइट नहीं देखते। शादी-ब्याह, मरनी-करनी, सब में दिखावा एवं फिजूल ख़र्ची करते हैं, चाहे घर- दुआर, खेत-पथारी बिक क्यों न जाए? आज तो  सामाजिक बहिष्कार का भी डर नहीं होता, तो भी लोग ऐसा न चाहते हुए भी करते हैं। परंपराओं को ग़लत जानकर भी लोगों के उलाहने का परवाह करते हैं। कारण है, मानसिक ग़ुलामी। इसी मानसिक निर्धनता को दूर करने का बौद्धिक संदेश लेखक के इस उपन्यास में है। आमजन की वेदना का मर्म स्पर्श, पाठकों को लेखक इस प्रकार कराता है कि जैसे पात्र पाठक के शरीर में आत्मा की तरह प्रविष्ट कर गया हो और फिर उनकी पीड़ा को महसूस कर रहा हो।
    लेखक ने भोजपुरी गंवई अंदाज में शब्द चित्रण ऐसा किया है कि मानो सामने सब कुछ आंखों के सामने चल रहा हो। लेखक स्वयं अध्याय के पन्नों को एक हिंदी भाषी की तरह पलटते हैं और पात्रों को भोजपुरी संवाद हेतु मौलिक परिवेश में स्वच्छंद छोड़ते हैं। लेखक का ऐसा भाषाई सम्मिश्रण अद्वितीय एवं भाषाविद् होने का परिचायक है। लेखक का यह अंदाज औरों से इन्हें विशिष्ट बनाता है।
   कथानक एक विकृत चलन ‘दहेज प्रथा’ और लगन के अनुसार शादी के केंद्र में है। उपन्यास में एक प्रोफेसर साहब, जो अपने छोटे भाई की शादी बिना दहेज और लगन के करवाते हैं, कहानी के केन्द्रीय पात्र है। वे रूढ़िवादी विचारधारा को तोड़ते हुए एवं अंधविश्वास को धत्ता बताते हुए एक नया चलन चलाते हैं, जिसके अनुसार बिना तिलक-दहेज के कोई भी, कभी भी, बिना लग्न-मुहूर्त के शादी कर सकता है। इस तरह का विवाह, ‘कुशवाहा लग्न’ के नाम से प्रचलित हुआ; जो गंगा पार के सुदूर  क्षेत्रों तक को काफी प्रभावित किया। यह बिल्कुल एक समाज सुधार कार्यक्रम था। कुशवाहा लग्न की अवधारणा पुरानी सड़ी-गली परम्पराओं को तोड़ती है। समाज के मुफ़्तख़ोर तोंदपाल, पोंगापंथी को तो नागवार गुजरना लाजिमी है, क्योंकि उनकी रोज़ी-रोटी पर आफ़त जो आ गई। उनके पारंपरिक धंधे पर गहरी चोट जो मारी गई थी।
‘लोग का कही’ एक सरस उपन्यास है। इसमें संवाद ग़ज़ब का है; एक अध्याय के बाद दूसरा और दूसरे अध्याय के बाद तीसरा। इस तरह पढ़ने में मजे़दार है कि पाठक उसे पढ़ता ही चला जाता है। अध्याय छोटे-छोटे हैं, जो उबाऊ बिल्कुल नहीं हैं‌। हर एक अगली कड़ी से तारतम्यता बैठती है। यह लेखन की ख़ूबी को दर्शाता है। हमें तो ऐसा लगता है कि ऐसा उपन्यास वही लिख सकता है, जो ख़ुद को ऐसा जिया हो।

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प्रकाशक: रेडशाइन पब्लिकेशंस, इंडिया।

मूल्य: ₹370

मो. ज़ाहिद हुसैन
प्रधानाध्यापक
उत्क्रमित मध्य विद्यालय
मलहविगहा,चंडी, नालंदा

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