रमेश और सुरेश दोस्त है। दोनो ने साथ में पढ़ाई की और एक साथ पले बढ़े। दोनों आज भी सम्पर्क में हैं,और परिवार से परिपूर्ण हैं सुखी है लेकिन दोनों अलग अलग परिस्थितियों से आगे बढे हैं।
रमेश एक धनाढ्य परिवार का इकलौता पुत्र था बचपन में उसे किसी प्रकार का अभाव नहीं था जबकि सुरेश एक किसान का बेटा जिसे मुश्किल से माड़ – भात मिल पाता था । दोनों एक ही गाँव के एक विद्यालय में पढ़ते थे , उन दिनों अँग्रेजी माध्यम वाले विद्यालयों का अस्तित्व ग्रामीण परिवेश में नही था अतः धन की स्थिति में अपार अन्तर होने के बावजूद भी दोनों एक ही विद्यालय में पढ़ते थे।
रमेश संसाधन की बहुलता में आसान जीवन का आदी हो गए थे जबकि सुरेश संघर्ष कर आगे बढ़े। संघर्ष के दौरान सुरेश को अपनी माँ का संबल था। सुरेश की माँ सावित्री देवी एक धार्मिक औऱ संवेदनशील महिला थीं जबकि रमेश की माँ सामान्य महिला थीं और रमेश के पिता में धन के कारण होने वाले दुर्गुण थे, रमेश जैसे जैसे बड़े हुए उनमें भी धन जनित दुर्गुण आने लगे और व्यभिचारी होने लगे।
विद्यालय। में एक शिक्षक थे ; भागवत मास्टर साहब, नैतिकता की प्रतिमूर्ति और छात्रों के प्रति संवेदनशील ! सुरेश और रमेश आज भी जब मिलते हैं या बात करते हैं तो भागवत मास्टर साहब के बारे में निश्चित तौर पर चर्चा होती है और दोनो उनकी प्रशंसा करते है। रमेश का तो मानना है कि यदि मास्टर साहब ने समझाया नहीं
होता तो आज रमेश सलाखों के पीछे होता, सुरेश भी अपने बुरे दिनों को याद कर अश्रुसिक्त नयनो से मास्टर साहाब को याद करते हैं।
उन दिनों के बारे में याद करते हुए सुरेश कहते हैं कि गुरूजी हमारे संबल थे और भीषण कष्ट में भी इन्होंने धैर्य , संस्कार और नैतिकता का जो पाठ पढाया उसने गलत रास्ते पर जाने से उन्हें कैसे रोका। ऐसी बात नहीं है कि जीवन में लालच या नियम तोड़ने का मौका नहीं मिला बल्कि उन नाज़ुक पलों में गुरुजी की शिक्षा ने थाम लिया। रमेश भी याद करके भावुक हो जाते हैं लेकिन उनकी कहानी कुछ अलग है वो याद करते हैं कि किस प्रकार वो गलत रास्ते से वापस हुए. यह कहानी चारित्रिक दोष तक जाती है और वापस होने में गुरुजी की नैतिक शिक्षा को वो मुख्य कारण मानते हैं।लेकिन दोनों के लिए विचारणीय प्रश्न है कि यह तो गुरुजी का व्यक्तित्व था जिसने उन दोनों को बिगड़ने से बचाया, लेकिन क्या मुख्य पाठ्यक्रम में नैतिक शिक्षा का होना अनिवार्य नहीं होना चाहिए? निश्चित रूप से समान्य विद्यार्थियों में नैतिकता का बीज पाठ्यक्रम के माध्यम से दिया जाना चाहिए।वस्तुतः पाठ्यक्रम की अधिकतर पढ़ाई का समान्य जीवन में उतना उपयोग नही है जितना नैतिक शिक्षा का… दोनों का निष्कर्ष एक ही है कि नैतिकता जीवन और नागरिक कर्तव्य का मूलभूत आधार है, इसके बिना शिक्षा अधूरी और व्यक्ति निर्माण एकाकी है।
डॉ स्नेहलता द्विवेदी
उत्क्रमित कन्या मध्य विद्यालय शरीफगंज, कटिहार