फ्रांस में 15 वीं सदी में जॉन ऑफ आर्क नाम की एक प्रचण्ड देशभक्त महिला हुई। देशभक्ति की मिसाल कायम करने वाली यह महिला विश्व इतिहास में अमर हो गई। भारत की प्रसिद्ध कवयित्री और स्वतन्त्रता सेनानी सुभद्रा कुमारी चौहान को भी भारत का जॉन ऑफ आर्क कहा जाता है।
हिन्दी की इस प्रसिद्ध कवयित्री में देशभक्ति की भावना कूट -कूट कर भरी हुई थी। गाँधीजी के आह्वान पर वे युवावस्था में ही देश की आजादी की लड़ाई में कूद पड़ी थी।
इस देशभक्त कवयित्री का जन्म 16 अगस्त 1904 को इलाहाबाद के पास निहालपुर गाँव में हुआ था।पिता का नाम ठाकुर रामनाथ सिंह था। 1913 में नौ साल की उम्र में सुभद्रा की पहली कविता प्रयाग निकलने वाली पत्रिका मर्यादा में छपी थी। सुभद्रा कुंवरि नाम से छपी यह कविता नीम के पेड़ पर लिखी गई थी।सुभद्रा और महादेवी वर्मा दोनों बचपन की सहेलियाँ थी।सुभद्रा की पढ़ाई नवीं कक्षा के बाद छूट गई। गाँधीजी की असहयोग की पुकार को पूरा देश सुन रहा था।सुभद्रा ने भी स्कूल से बाहर आकर पूरे मन-प्राण से असहयोग आन्दोलन में अपने को झोंक दिया। एक देश-सेविका के रूप में और दूसरे देशभक्त कवि के रूप में। जलियाँ वाला बाग के नृशंस हत्याकाण्ड से उनके मन पर गहरा आघात लगा। जालियां वाला बाग में वसन्त में उन्होंने लिखा-
परिमल हीन पराग दाग-सा बना पड़ा है।
हा!यह प्यारा बाग खून से सना पड़ा है।
आओ प्रिय ऋतुराज!किन्तु धीरे से आना।
यह है शोक स्थान यहाँ मत शोर मचाना।
कोमल बालक मरे यहाँ गोली खा-खाकर।
कलियां उनके लिये गिरना थोड़ी लाकर।।
1919 में इनका विवाह खण्डवा के ठाकुर लक्ष्मण सिंह के साथ हुआ।नागपुर में झण्डा आन्दोलन शुरू होने पर उन्होंने उसमें सक्रिय रूप से भाग लिया। वे ऐसी पहली सत्याग्रही महिला थी जो देश की आजादी के लिये फिरंगी शासन के खिलाफ आवाज उठाते हुए जेल गई जेल से रिहा होने के बाद और भी जोशोखरोश के साथ वह देश की आजादी के संघर्ष में जुट गई। उनके दिल में देश की आजादी की उत्कंठा प्रबल थी। यह भावना उनकी कविताओं के माध्यम से सामने आई। इसी दौरान उन्होंने सेनानी का स्वागत, वीरों का कैसा हो वसंत, झाँसी की रानी जैसी प्रेरणाप्रद कविताएँ लिखीं। सुभद्राजी को सिनेमा देखने का बहुत शौक था। सुभद्राजी सास के अनुशासन में रहकर मात्र सुघर गृहिणी बनकर संतुष्ट नहीं थीं। उनके भीतर जो तेज था, काम करने का उत्साह था। कुछ नया करने की जो लगन थी, उसके लिये घर की चारदीवारी की सीमा बहुत छोटी थी। सुभद्राजी में लिखने की प्रतिभा थी और अब पति के रूप में उन्हें ऐसा व्यक्ति मिला थाजिसने उनकी प्रतिभा को पनपने के लिये उचित वातावरण देने का प्रयत्न किया। 1920-21 में सुभद्रा और लक्ष्मण सिंह दोनों अखिल भारतीय काँग्रेस कमिटी के सदस्य थे। सुभद्रा और लक्ष्मण सिंह ने नागपुर कांग्रेस में भाग लियाऔर घर घर जाकर कांग्रेस का संदेश पहुँचाया।
सुभद्राजी ने मातृत्व से प्रेरित होकर बहुत सुन्दर बाल कविताएँ लिखी हैं। इन कविताओं में भी उनकी राष्ट्रीय भावनायें प्रकट हुई है। “सभा का खेल’ नामक कविता में, खेल -खेल में राष्ट्र भाव जगाने का प्रयास देखिये–
सभा-सभा का खेल आज हम खेलेंगे,जीजी आओ।
मैं गाँधीजी, छोटे नेहरू,तुम सरोजिनी बन जाओ।।

मेरा तो सब काम लंगोटी गमछे से चल जाएगा। छोटे भी खद्दर का कुर्ता पेटी से ले आएगा। मोहन ,लल्ली पुलिस बनेंगे, हम भाषण करने वाले
वे लाठियां चलाने वाले,हम घायल मरने वाले। सुभद्राजी की बेटी सुधा चौहान का विवाह प्रेमचन्द के पुत्र अमृतराय से हुआ।
कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान की समकालीन कवयित्रियों में महादेवी वर्मा के अलावे किशोरी देवी, राजकुमारी विद्यावती “कोकिल” राजकुमारी की बहन, रामेश्वरी देवी”चकोरी”,विष्णु कुमारी “मंजु”तथा तोरण देवी”लल्ली” भी थी। सुभद्रा जी को जीवन भी छोटा मिला-केवल 44 वसन्त उन्होंने देखे।फिर भी इस दौरान उन्होंने विपुल साहित्य सृजन किया ।
राष्ट्रीय आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी और अनवरत जेल यात्रा के वावजूद उनके तीन कहानी संग्रह प्रकाशित हुए- “बिखरे मोती” (1932) जिसमें पन्द्रह कहानियाँ उन्मादिनी (1934) जिसमें नौ कहानियाँ सीधे -सादे चित्र (1947) जिसमें चौदह कहानियाँ समाहित है। सुभद्राजी की कहानियों में से अधिकांश बहुओं, विशेषकर शिक्षित बहुओं के दुःखपूर्ण जीवन को लेकर लिखी गई है। वे स्त्री सरोकारों से जुड़ी हुई कहानियाँ लिखने वाली आजादी से पहले की पहली लेखिका हैं।
पंद्रह अगस्त1947को जब देश आजाद हुआ तो सबने खुशियाँ मनाई। सुभद्राजी ने भेड़ाघाट जाकर वहाँ के खान मजदूरों को कपड़े और मिठाई बांटी।
गाँधीजी की हत्या से सुभद्राजी को ऐसा लगा कि जैसे सचमुच अनाथ हो गई हो।12 फरवरी 1948 को गाँधीजी की अस्थियाँ नर्मदा में विसर्जन करने के लिये लाई गई। सुभद्रा जी सदलबल गाँधीजी की अस्थियाँ लेने मदन महल स्टेशन गई और पुलिस का घेरा तोड़ा।
14 फरवरी को नागपुर में शिक्षा विभाग की मीटिंग में भाग लेने गई। डॉक्टर ने रेलगाड़ी से नहीं, कार से जाने की सलाह दी। 15 फरवरी 1948 को दोपहर के समय वे जबलपुर के लिये वापस चली। सुभद्रा ने देखा कि बीच रास्ते में तीन-चार मुर्गी के बच्चे हैं। उनका बेटा कार चला रहा था। उन्होंने अकचका कर बेटे से कहा-“अरे बेटा! मुर्गों के बच्चों को बचाओ!” मोटर तेजी से काटने के कारण सड़क किनारे के पेड़ से टकरा गई। सुभद्रा जी बेहोश हो गई। अस्पताल के सिविल सर्जन ने देखकर बताया कि उनका देहान्त हो गया है।
15 फरवरी 1948 को 44 वर्ष की आयु में ही उनका देहान्त हो गया।एक संभावनापूर्ण जीवन का अंत हो गया।
जबलपुर के निवासियों ने चंदा इकट्ठा करके नगरपालिका प्रांगण में सुभद्रा जी की आदमकद प्रतिमा लगाई जिसका अनावरण27 नवंबर1949 उनकी बचपन की सहेली महादेवी वर्मा ने किया।महादेवी जी नेइस अवसर पर कहा-“नदियों का कोई स्मारक नहीं होता।दीपक की लौ को सोने से मढ दीजिये पर इससे क्या होगा?हम सुभद्रा के संदेश को दूर दूर तक फैलाएं और आचरण में उसके महत्व को माने-यही असल स्मारक है।”
-हर्ष नारायण दास
प्रधानाध्यापक
मध्य विद्यालय घीवहा
फारबिसगंज(अररिया)