जोगीरा सा…रा..रा..रा- अरविंद कुमार

कार्यालय में होली की छुट्टी हुई , तो मन बिजली की रफ्तार से गांव पहुंच गया । और फिर याद आने लगे गांव की पगडंडी, खेत- खलिहान, गर्दन ऊंचा कर चारों तरफ निहारता बूढ़ा बरगद , सिम्मर के फूल , मक्के की मूंछे निकली हुई बालिया , मंजरते आम की खुशबू , सलहेश बाबा का गहवर और काली स्थान ।इन दिनों बसंती हवा की अंगड़ाई से फिजां में एक अजीब सी मादकता फैली हुई है । पुराने पत्ते वृक्ष से अलग होकर आंसू बहाते है तो नये कोंपल पेड़ की शाखाओं से लगकर मंद- मंद मुस्कुराते है ।एक समय था जब 15-20 रोज पहले से ही गाँव में होली का असर दिखने लगता था । टोले का कौन होली खेलने ससुराल जाएगा और कौन सा मेहमान गांव आएंगे ,इसकी चर्चा कई दिन पहले से ही शुरू हो जाती थी । कैलाश काका एकाध सप्ताह पहले से ही फगुआ गीत गाना शुरू कर देते थे। टोले में फगुआ की तैयारी के लिए एक निर्धारित दरवाजे पर पूरी बस्ती का जमावड़ा होता था। फिर शुरू होता था जोगिरा का दौर ,गांव की महिलाएं घुंघट तले मुस्कुराती डेरहिया से ही होली की तैयारी का लुत्फ उठाती थी । गरीबी ,दुख-तकलीफ भी ढोलक की थाप पर नाचने लगते थे । होली के दिन दस बजते-बजते गाँव के तकरीबन सभी नालियों की उड़ाही हो जाती थी । होली का हुड़दंग बूढ़े को भी जवान बना देता था । घूंघट के भीतर से हंसती हुई भाभीयां जब देवर की टोली पर खोखले बांस की पिचकारी से रंग डालती तो पूरा वातावरण और रंगीन हो जाता था। दादी ,काकी ,दादा के हाथों मिले पुआ का स्वाद का जबाब नही था ।नहाने-धोने के बाद बड़ों के पैर पर अबीर रखकर उनसे आशीर्वाद लेना। बराबर वालों के मुँह में अबीर लगाकर गले मिलना । चेहरे, पैर और बालों में लगा अबीर होली के दिन दो लोगों के बीच हर दूरी को समाप्त कर देता था।संध्या की बेला में फगुआ गाने वाला दल ढोल, झाल, मंजीरे के साथ घर -घर घुमते और गाते–“एक..दिस. खेले.. कुंमर.. कनहैया.. एक.. दिस. राधा.. होरी.. होर….होरी.. होर.. हो होरी.. होर…” टोले से गुजरते भरगामा वाला महावीर चौकिदार को जब होली के गीत सुन बर्दाश्त नही होता तो साइकिल पटक कर कुद पड़ते होलेया वाला दल में और सब को पछाड़कर जोर -जोर से जोगिरा गाने लगते—“अरे..सा.रा..रा..रा..सारा..रारा..नाचो..जानी.. जोरम..जोर……नही..तो..लगेगा..सरकारी..रोल..सारा..रारा…” महावीर के ताल पर फूलकहा वाली की साड़ी पहनकर जानी बनी बिनदेशरी जार-बेजार नाचने लगता था ।हर दरवाजे पर होली गानेवाले दल का रंग और गुलाल से स्वागत होता था । फिर बच्चे, बूढ़े और नौजवान सब बिना किसी भेदभाव के रंग-गुलाल के रंगीनियत में सराबोर हो जाते थे । ढोल, झाल, मजीरा की आवाज का जादू बुढ़ी हड्डियों में भी जान डाल देती थी। देर रात तक गानों का यह सिलसिला जारी रहता। कैलाश काका और महावीर चौकिदार अब इस दुनिया में नहीं रहे मगर उनका जोगीरा आज भी जिंदा है । होलिका जलाने के दिन पूरे गाँव का उत्साह देखते ही बनता था। कालीस्थान के पास होलिका जलाई जाती । बड़े लोग गीत गाते और बच्चे उत्साह से समन जलाते आग में तीसी के पौधे व लहसून सेंककर घर लाया जाता था । ऐसी मान्यता थी की ये चीजे अपशगुन, नजर-गुजर से परिवार की रक्षा करेगी। पहले की होली सिर्फ रंगो का खेल नही बल्कि सामाजिक उत्सव था ।अमीर-गरीब ,ऊंच-नीच का कोई बंधन नही सब मिलकर होली मनाते थे । आज आधुनिकता व शहरीकरण के इस दौर में हमारी होली जैसी परंपरा के सामाजिक स्वरूप में काफी गिरावट आई है ,नशा ,डीजे व अश्लील गानों की भेंट चढता हुडदंग वाली होली सामाजिक एकजुटता वाली होली से दूर होती जा रही है जो हमारे लिए चिंता का विषय है । बगल से होकर गुजरती गाड़ी की हार्न ने मेरी तंद्रा भंग की , मेरी यादों की होली वर्तमान होली से कही ज्यादा रंगीन था ।

अरविंद कुमार, म.वि.रघुनाथ पुर गोठ

अररिया

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