भारत की मिट्टी ने एक ऐसा तपः पूत रचा जो आत्मा से गाँधी था, आस्था में क्रान्ति, गति में कर्म था और राष्ट्र में सम्पूर्ण जीवित राष्ट्रीयता, वाणी, वीणा, वेणु और वेणी उसके साहित्य संसार में ऐसे उपस्थित थी, जिनसे क्रान्ति के मन्त्र भी झरते थे।मातृभूमि पर “फूल की चाह’ बनकर समर्पित होकर पुष्प भी बनते थे और काव्य-कामिनी का सौन्दर्य भी।
“भारतीय आत्मा” और साहित्य देवता” उपनामों से भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन को काव्य की भाषा में पिरोकर जिस प्रकार बलि -पथ के राही चतुर्वेदी ने प्रस्तुत किया, वह अद्भुत और अनुपम है।
चतुर्वेदी जी का जन्म 4 अप्रैल 1889 को मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले के बावई नामक ग्राम में हुआ था।
माखनलाल चतुर्वेदीजी एक साथ सन्त, वक्ता, विद्रोही के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं।उनकी जिह्वा में सरस्वती का निवास था, उनकी लेखनी में राग, स्फूर्ति और शक्ति की निर्झरणी थी।बउनकी कलम में अद्भुत शक्ति थी। जहाँ एक ओर उनसे शक्तिशाली ब्रिटिश शासन थर्राता था, वहाँ दूसरी ओर युवकों में मां भारती की आजादी हेतु हथकड़ियां पहनने तथा अनगिनत शीशों को बलिदान करने की प्रेरणा भी भरती रहती थी-
है तेरा विश्वास गरीबों का धन, अमर कहानी।
तो है तो श्वास क्रान्ति की प्रलय लहर मस्तानी।
कण्ठ भले हो कोटि कोटि तेरा स्वर उनमें गूँजा।
हथकड़ियों को पहन राष्ट्र ने, पढ़ी क्रान्ति की पूजा।।
वृन्दावन लाल वर्मा ने माखनलाल चतुर्वेदी को “भावना, कल्पना और कविता का ज्वालामुखी कहा है। एक ऐसा ज्वालामुखी जो कहीं फूट पड़े तो धरा को हिला कर रख दे, क्योंकि वह वक्त था-गुलामी का, अंग्रेजों की हुकूमत का, चतुर्वेदी जी ने अंग्रेजी हुकूमत को हिलाया, डुलाया और उनकी लेखनी से ज्वालामुखी का प्रचण्ड स्रोत फूट पड़ा –
द्वार बलि का खोल, चल भूडोल कर दें।
एक हिमगिरि, एक सिर का मोल कर दे।
मसलकर अपने इरादों सी उठाकर
दो हथेली है कि पृथ्वी गोल कर दे।
1935 में उन्हें “साहित्य भूषण’ की उपाधि धर्म महामण्डल द्वारा प्रदान की गई। 1943 में “हिमकिरिटनी” नामक काव्य रचना पर देव पुरस्कार प्रदान किया गया। 1946 में कराची अधिवेशन में विद्यावाचस्पति की उपाधि प्रदान की गई।1954 में हिम् तरंगिनी काव्य रचना पर साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किया गया।1959 में सागर विश्वविद्यालय ने उन्हें डी लिट् की उपाधि से सम्मानित किया गया।
उनका परिवार राधा वल्लभ सम्प्रदाय का अनुयायी था, इसलिए स्वभावतः चतुर्वेदी के व्यक्तित्व में वैष्णव पद कंठस्थ हो गए। 1913 ईस्वी में इन्होंने “प्रभा” पत्रिका का सम्पादन आरम्भ किया जो पहले चित्रशाला प्रेस पूना से और बाद में प्रताप प्रेस कानपुर में छपती रही। “प्रभा” के सम्पादन काल में इनका परिचय गणेशशंकर विद्यार्थी से हुआ, जिनके देश-प्रेम और सेवाव्रत का इनके ऊपर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। 1918 ईसवी में “कृष्णार्जुन युद्ध” नामक नाटक की रचना की और 1919 ईसवी में जबलपुर से “कर्मवीर” का प्रकाशन किया। 12 मई 1921 को राजद्रोह में गिरफ्तार हुए।1922 ईस्वी में कारागार से मुक्ति मिली। 1924 ईस्वी में गणेशशंकर विद्यार्थी की गिरफ्तारी के बाद प्रताप का संपादकीय कार्यभार संभाला। 1927 ईसवी में भरतपुर में में संपादक सम्मेलन के अध्यक्ष बने। “साहित्य-देवता” माखनलाल जी के भावात्मक निबन्धों का संग्रह है।
30 जनवरी 1968 को वे चिर निद्रा में सो गए।
ऐसे महान क्रान्तिकारी कवि को कोटिशः नमन।
-हर्ष नारायण दास
प्रधानाध्यापक
मध्य विद्यालय घीवहा।
फारबिसगंज (अररिया)