दशहरा का कपड़ा : अरविंद कुमार

रानीगंज भरगामा मोड़ से लेकर फारबिसगंज वाली रोड के पेट्रोल पंप तक तथा इधर अररिया वाली रोड में काली मंदिर से रानीगंज बस स्टेंड तक गाड़ी चुट्टा पिपरी की तरह रोड़ पर जमे हुए थे । सबको जल्दी थी, पैदल चलने वाले लोग दो गाड़ीयों के बीच बची थोड़ी सी जगह से होकर किसी तरह निकल रहे थे । प्रचंड धूप पूरे बाजार में उमस पैदा कर रही थी ।

रोड़ से सटे पश्चिम की गली में कुमार सानू वस्त्रालय पर सुबह से ही भारी भीड़ जमा है । वहां के स्टाफ ग्राहकों को एक पर एक फैंन्सी कपड़े दिखाने में व्यस्त हैं। सबकी एक ही डिमांड है सुन्दर से सुन्दर कपड़े दिखाये जाय, जिसे पहनकर वो बहुत खुबसूरत दिखे । ग्राहकों को कपड़ा दिखाते-दिखाते डेस्क पर कपड़ो का अंबार लग जाता है , फिर भी कस्टमर को पसंद नहीं आ रहा है ।

‘ये लाइये’
‘वो लाइये’
‘ऊं! इसका कलर भक’
‘इसमें दूसरा कलर नही है हो’
‘हे इ छोटा हो जाएगा ‘
दुकान का स्टाफ परेशान हो गया है, उसकी हालत खराब हो रही है, मगर फूलकुमारी की मां मीरगंज वाली को कोई कपड़ा पसंद ही नहीं आ रही है।

मीरगंज वाली का भाई गौतम इसबार भरगामा का ही मेला देखना चाहता है, इसलिए वो पांच रोज पहले ही यहां आ धमके है। मीरगंज वाली के तीनों बच्चें और उसका भाई गौतम ,अपना -अपना कपड़ा पसंद कर चुके है । बस मीरगंज वाली का काम अटका हुआ है। उसका पति शंभू केरल में फैक्ट्री में काम करता है। परसों ही आया है दशहरा मनाने, पति को देखते ही मीरगंज वाली मोछ पिजाने लगी है । उ इसबार अपनी गोतनी बिहारी गंज वाली मसटरनी को दिखा देना चाहती है की उ भी किसी से कम नही है ।

उधर शंभू दुकान के बाहर बैठा है , वो घर का मुखिया हैं उसे कपड़े नहीं चाहिए । परिवार के सब लोग नये कपड़े ले रहे हैं तो उसने मान लिया है की वो नये कपड़े ले लिया । यही उसकी आत्मसंतुष्टि है। वैसे भी परिवार का मुखिया अपनी छत्रछाया में अपने परिवार व बच्चों को ओढ़ते – पहनते, खुशहाल देखकर, अपने पुराने कपड़े में ही दशहरा मना लेते है।

शंभू की छोटी बेटी कोमल मां के बगल से निकल कर पीछे वाली काउंटर पर जाकर अपने दादा रामशरण के लिए एक कुर्ता -पैजामा देखने लगी । दुकान का स्टाफ छोटी बच्ची कोमल को गौर से निहार रहा था । इ दशहरा में छोटी बच्ची कोमल उसके दुकान की पहली ऐसी कस्टमर थी , जो अपने दादा के लिए कुर्ता,पैजामा, रेहरा ,कालर वाला टी- शर्ट ढूंढ रही थी । पसंद हो जाने पर कोमल अपनी मम्मी से बोली — ‘ ये देखो मम्मी दादा के लिए लिये है कैसा है ? । “

कपड़ा देखकर मीरगंज वाली का मुंह इनहोर हो गया।

‘इ इलाजो करबे, कपड़ों देबो । पैसा गाछ पर फरे छै , रखले की ने कपड़ा बरका दादा वाली बने छै’ ।

मां की डांट से कोमल का मन उदास हो गया। वो बाहर बैठे अपने पिता शंभू के पास गई और विनती भरे स्वर में बोली “पापा इ दादा के लिए कुर्ता -पैजामा लिए है , मम्मी डांटती है, कहती है। वापस कर दो नही लेना है , नहीं है उतना पैसा।
फिर अपना टॉप -जिंन्स पिता के हाथ में देते हुए बोली इसमे से मेरा टॉप घुमा दीजिए पापा और हम सिर्फ जिन्सें ठो लेंगे और उ टॉप वाला पैसा से दादा को कुर्ता -पैजामा खरीद दीजिए।

कोमल की बात सूनकर शंभू को ऐसा लगा मानो उसके ऊपर किसी ने सौ घड़ा पानी डाल दिया हो। कपड़े तो दूर उसे अभी तक अपने पिता रामशरण का ख्याल तक नहीं आया था । कोमल की बात सुनकर शंभू खूद को रोक नहीं पाया उसने कोमल को अलग से दादा के लिए कुर्ता -पैजामा खरीद कर दिया।

कपड़ा लेकर सपरिवार घोलटू साह जी के होटल पहुंचे सब ने नाश्ता किया। वापसी में कोमल दादा के लिए आधा किलो स्पंज वाला रसगुल्ला खरीद ली थी ।
मीरगंज वाली आंख गुरारती रह गई मगर कोमल को कोई फर्क नहीं पड़ा ।

“दादा हो ..दादा”

बूढ़ा रामशरण चौकी पर लेटा हुआ था कोमल की आवाज सुनकर उठ बैठा। फिर खांसते हुए बोला – “की हो बाऊ।” कोमल ने दादा के हाथ में कुर्ता -पैजामा रखा और मिठाई का पैकेट खोलते हुए बोली ‘ ये खाइये दादा जी, रानीगंज का मिठाई है । रामशरण ने जैसे मिठाई मुंह में लिया। उसके आंख के कोने से एक छोटी सी बूंदे लुढ़कर उसके झुर्रिदार गाल पर पहुंच गई ।

बीमार रामशरण की जीवन की ढलती शाम थोड़ी देर के लिए ठहर सी गई थी । ऐसा लग रहा था मानो रेगिस्तान में बारिश की बूंदें गिर रही हो ।

अरविंद कुमार, भरगामा,अररिया

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