सोने का हंस
एक मंदिर था। वहां कपिल नाम का एक पुजारी रहता था। कपिल का लोगों के साथ व्यवहार बहुत ही अच्छा था। वह नेक दिल इंसान था। कोई भी दीन दुखिया मिलता तो उन्हें भी मंदिर के चढ़ावें मेें से कुछ भाग दे दिया करता था।
पुजारी का अपना परिवार भी था। बीवी थी और दो बच्चे थे। मंदिर के चढ़ावे से ही कपिल के परिवार का भरण पोषण हो रहा था। हालांकि पुजारी के व्यवहार से खुश होकर लोग चढ़ावा भी अधिक चढ़ाते थे। पुजारी अपना कर्म करता रहा लेकिन कहा जाता है कि विधि का विधान तो अटल है।
फिर एक दिन उस परिवार पर बड़ा ही दुर्भाग्य का साया पड़ा। अचानक दिल का दौरा पड़ने के कारण पुजारी की मृत्यु हो गई। बीवी विधवा और बच्चे अनाथ हो गए। कपिल कोई बड़ी संपत्ति छोड़कर भी नहीं गया था। उनकी मृत्यु के बाद घर की हालत बहुत ही दयनीय हो गई। परिवार दाने-दाने को मोहताज हो गए।
कुछ दिन कुछ लोगों ने सहायता की लेकिन कोई कब तक सहायता कर सकता है। मंदिर में चढ़ावा भी न के बराबर चढ़ने लगा। पुजारी के प्रताप से ही चढ़ावा अधिक चढ़ता था। वह घटकर दो चार सिक्के तक हो गए।
उधर पुजारी ने हंस का जन्म लिया। वह सुनहरे रंग लिए बहुत ही खूबसूरत और मनमोहक था। वे सरोवर में तैरते, मोती चुनकर खाते तथा कमल के फूलों का पराग पीते। हंस का जन्म लिए पुजारी को पूर्वजन्म की सारी बातें याद रह गई। उसे प्रायः अपने बीवी और बच्चों की याद आती रहती। वह सोचता रहता जाने वह कैसे होंगे।
एक दिन हंसों के राजा ने सुनहरे हंस से उसकी उदासी का कारण पूछा। हंस ने राजा को सारी बातें बताई। राजा बोला- मित्र! विलक्षण प्राणियों को ही पूर्वजन्म की बातें याद रहती है। तुम बहुत ही भाग्यशाली हो। एक काम करो, तुम जाओ अपने परिवार से मिल आओ।
हंस खुश होकर उड़ चला। वह अपने गांव जाकर अपने घर के छत की मुंडेर पर आकर बैठ गया। उसने देखा बच्चे फटे-चिटे कपड़े पहने मां से खाना मांग रहे हैं, भूख से तड़प रहे हैं, घर में कुछ भी खाने को नहीं है, बीवी फटी साड़ी पहने अपने दुर्भाग्य को कोस रही है। यह सब देखकर हंस के आँखों में आँसू आ गए। परिवार की ऐसी दयनीय हालत देख उसका कलेजा फटने लगा।
हंस ने अपनी पत्नी से कहा मैं पूर्वजन्म में तुम्हारा पति कपिल था। मैं नया जन्म लेकर अब हंस बना। तुमलोगों की ऐसी दशा मुझसे देखी नहीं जाती। मैं तुम्हारी मदद करूंगा और तुमसे मिलने हर रोज आया करूंगा। इतना कहकर सोने के हंस ने अपने एक पंख को आँगन मे गिरा दिया और वह उड़ चला।
घर की हालत थोड़ी सुधरी। कर्ज से थोड़ी मुक्ति मिली। दूसरे दिन फिर हंस आया और फिर एक पंख छोड़ गया। इसी तरह रोज हंस आता और अपनी सोने की एक पंख छोड़ जाता। सोने के पंख को बेचकर विधवा, बच्चे सभी रईस हो गए। विधवा ने एक नौकरानी भी रख ली। घर, जमीन, जायदाद, नौकर चाकर सभी ठाठ-बाठ हो गए। एक दिन हंस ने पत्नी से कहा कि अब मेरा आना बहुत कम ही होगा क्योंकि मेरा मालिक मुझे अब आने की अनुमति नहीं देता। अगली बार शायद मेरा आना अंतिम ही हो।
अब विधवा को सोने के पंख और रईसी ठाठ-बाठ की आदत पड़ चुकी थी। नौकरानी ने विधवा से कहा- अगली बार हंस का आना अंतिम ही होगा। अगर आप कहें तो उस दिन हंस की सारी पंखों को उखाड़ डालूंगी। वैसे भी वो पूर्वजन्म में आपके पति थे, इस जन्म में तो एक पक्षी है। विधवा भी तैयार हो गई। फिर क्या था हंस आया और विधवा ने छल से उसे अपने पास बुलाया। विधवा ने कहा मैं आपसे आज जी भर के मिलना चाहती हूँ, बातें करना चाहती हूँ, पता नहीं फिर मुलाकात हो न हो।
हंस ज्यों ही विधवा के पास आया वह उसके सारे पंख नोच डाली। हंस दर्द से कराहता रहा और बोला- मूर्ख! तूने लालच में आकर बहुत बड़ा दुष्कर्म कर दिया। मेरे पंख सोने के तभी तक रहते हैं जब तक मैं उसे स्वयं दान न करूँ। विधवा ने देखा, बगल में रखे सोने के पंख सफेद पंखों मे तब्दील हो गए। विधवा को अपनी गलती का एहसास हुआ लेकिन तब-तक बहुत देर हो चुकी थी और विधवा के हाथ लगी सिर्फ और सिर्फ निराशा।
शिक्षा:- इस कहानी से हमें यही शिक्षा मिलती है कि अधिक लालच का फल हमेशा बुरा ही होता है।
नूतन कुमारी (शिक्षिका)
पूर्णियाँ, बिहार