टूटते बिखरते सपने-राजीव नयन कुमार

टूटते बिखरते सपने 

          कुसुमपुर गांव में राघव नाम के एक व्यक्ति अपनी पत्नी दौलती और दो बच्चों के साथ रहता था। वह बहुत गरीब था। मजदूरी के अलावे जीविका के नाम पर उसके पाास सिर्फ एक गाय थी। उस गाय को राघव प्यार से हीरामनी कह कर बुलाता था। गाय के दूध से उसे अतिरिक्त आमदनी हो जाती थी। वह इसी गाय के सहारे अपने जीवन में ऊंचे-ऊंचे सपने देखा करता था। गाय ही उसके लिए सब कुछ थी। राघव हमेशा दोनों बच्चो को पढ़ा लिखाकर अफसर बनाने का सपना देखता रहता था।

समय के साथ बच्चो की पढ़ाई और जीवन की गाड़ी पटरी पर चल रही थी। इसी बीच गांव में खबर फैली कि अपने देश में एक चीनी बीमारी कोरोना आ गया है। देखते ही देखते कोरोना गांव में भी आ गया। सारे देश में लॉक डाउन हो गया। चारो तरफ काम धंधा बंद हो गया। घर में जो भी थोड़ा बहुत बचाकर रखा था, वो भी समाप्त हो गया था। चार महीने के बाद हीरामनी बच्चे को जन्म देती तो सब ठीक हो जाता, लेकिन यहां तो एक-एक दिन काटना मुश्किल हो रहा था। अब तो राघव को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि वो क्या करें। उसके सारे सपने आंखो के सामने बिखरते नजर आ रहे थे। एक तरफ बच्चों की पढ़ाई बाधित हुई तो दूसरी तरफ अपने प्राणों से प्रिय हीरामनी को भरपूर खाना भी नहीं दे पा रहा था।
उदास राघव हीरामनी के पास बैठा हुआ था, तभी उनके बच्चे आकर बोल पड़े,” बापू ..बापू…मुझे भी मोबाइल खरीद दो ना। हम भी ऑनलाइन पढ़ाई करेंगे। गांव के कुछ बच्चे ऑनलाइन ही पढ़ाई कर रहे थे। राघव के पास इतने पैसे नहीं थे कि वह मोबाइल खरीद सके। लॉकडाउन में वह दाने-दाने को मोहताज था। फिर भी बच्चों को सांत्वना देते हुए राघव ने कहाा- “हां…..हां बेटा ! खरीद दूंगा। तुम चिंता नहीं करो बेटा। जा … जा अभी खेलो।”
बच्चो को तो राघव बोल दिया, परंतु बच्चों के भविष्य को लेकर मन में एक पीड़ा सी उठ रही थी। वह हीरामनी की आंखो में झांककर उससे सवाल कर रहा था कि, “बोल हीरामनी अब कैसे चलेगी ज़िन्दगी ? अब बच्चो के भविष्य का क्या होगा?” हीरामनी के आंखो में आंसू अपने मालिक की व्यथा को व्यक्त करने के लिए काफी था।
“सुनते हो जी…. घर में अब कुछ नहीं बचा है।” दौलती आकर राघव से प्रश्न भरी लहजे में कहा।
“हां.. ..हां….देखता हूं……कहीं से कोई व्यवस्था करके…….अरे…अभी कोई उधार भी नहीं देता है।,”
“मैं तो कहती हूं जी…हीरामनी को बेच क्यों नहीं देते? कुछ दिन तो घर का खर्च चलेगा। अब तो घर में चारा भी नहीं है। अपने खाने की व्यवस्था करोगे कि इसकी चारे की। खूंटा पर मर गया तो गौहत्या लगेगी वो अलग ”

राघव के दिल में धक से लगा। वह सोचने लगा- कितना मेहनत से थोड़े थोड़े पैसा इकठ्ठा कर हीरामनी को मंगरा हाट से खरीदकर लाया था। यही दौलती घी के दीया और सिंदूर लेकर घर से बाहर दौड़ती हुई, हीरामनी के स्वागत में आई थी। समय क्या नहीं करा देता है। अब तो हीरामनी के बिना एक पल अलग होने की सोच भी नहीं सकता।
“सोच क्या रहे हो ? अब कोई व्यवस्था करो नहीं तो घर का चूल्हा भी नहीं जलेगा। “झुंझलाते हुए दौलती घर के भीतर चली गई।
राघव अब दिल पर पत्थर रखकर हीरामनी को बेचने का मन बना लिया। हाट बाजार तो सब बंद है। गांव के ही बलेशर सेठ के पास गिरवी रख देना ठीक रहेगा। कम से कम कभी-कभी हीरामनी को अपनी आंखो से देख तो लेगा।

सुबह-सुबह राघव हीरामनी को लेकर बालेशर सेठ के घर पहुंच गया। चालाक सेठ को राघव की मजबूरी को समझते देर न लगा। काफी मोल-भाव के बाद ग्यारह हजार रुपया दाम तय हुआ। गाय के पगहा (रस्सी) बलेशर सेठ के हांथो में सौंपकर, राघव आंखो में आंसू लिए हुए तेज़ी से मुड़ गया। हीरामनी की आवाज़ उसके कानों में गूंज रही थी। हृदय फटा जा रहा था। ग्यारह हजार रुपयों में बच्चो की पढ़ाई के लिए मोबाइल, घर का खर्चा, बकाया आदि का हिसाब लगाते हुए राघव को कुछ नहीं सूझ रहा था। डबडबाई आंखो में धूमिल सपना लिए हुए वह धीरे – धीरे घर के तरफ बढ़ रहा था।

मौलिक एवं स्वरचित
राजीव नयन कुमार
मध्य विद्यालय खरांटी, ओबरा, औरंगाबाद

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