महामारी और शिक्षा
वैसे तो विश्व पहले भी कई महामारी का दंश झेल चुका है। 1720 का मार्सिले प्लेग, 1820 का फर्स्ट हैजा, 1920 का स्पैनिश फ्लू और अब 2019-20 का कोरोनावायरस। इसने पूरे विश्व को अपने चपेट में ले रखा है। जहां एक ओर इसने पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था को चरमरा दिया है वहीं दूसरी ओर शिक्षाप्रणाली पर इसके दूरगामी परिणाम अत्यंत दुःखद है।
सन 2020 ई. में कोरोना के विस्तार को रोकने के लिए 24 मार्च से पूरे देश में लॉकडाउन लगा दिया गया और सभी प्रकार के शैक्षणिक संस्थान बंद कर दिए गए। धीरे-धीरे लॉकडाउन को विस्तारित किया गया और महामारी की भयावहता भी स्पष्ट होने लगी। बड़े-बड़े नीजी संस्थानों ने ऑनलाइन शिक्षा की शुरुआत कर दी पर ग्रामीण क्षेत्र के बच्चे जो सरकारी विद्यालय से जुड़े थे, उनकी पढ़ाई शिथिल हो गयी। बच्चों को वर्गोन्न्ती दे दिया गया। फिर धीरे-धीरे चरणबद्ध रूप से जब लॉकडाउन हटा तो लगा कि संक्रमण समाप्ति की ओर है तब क्रमबद्ध रूप से उच्च शिक्षण संस्थान से नीचे की ओर बढ़ना शुरू ही हुआ कि दूसरी लहर आ गई। सीबीएसई की परीक्षाएं नहीं ली गई। पुनः बच्चों को प्रमोट कर दिया गया। लॉकडाउन के कारण सभी संस्थान पुनः बंद कर दिए गए। अब शैक्षणिक प्रणाली सिर्फ ढांचे के रूप में है। एक तरफ जो बच्चे ऑनलाइन पढ़ाई कर रहे हैं वह न तो ऑफलाइन की तरह लाभान्वित हो रहे हैं और दूसरी ओर गेम, चैट, स्क्रीन से चिपके रहने के कारण आंख, मस्तिष्क संबंधी बीमारियों से ग्रस्त हो रहें हैं। दूसरी ओर ग्रामीण क्षेत्र के कुछ बच्चे शिक्षा से वंचित हैं।
अब विचारणीय विषय यह है कि क्या हम यूं ही बच्चों के भविष्य को बिखरने दे। आखिर धीरे-धीरे कोरोना के संग-संग जब जीना है तब हम क्यों न वर्तमान शिक्षा प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन लाएं। हमसबों को यह समझना होगा कि महामारी में शैक्षणिक व्यवस्था में जब-तक सिलेबस, पढ़ाई का तरीका, परीक्षा पद्धति में बदलाव नहीं लाते हैं तब-तक भविष्य का निर्माण नहीं कर सकते हैं।
कुमारी निरुपमा
बेगूसराय बिहार