मैं भी तो बेटी हूं : डॉ. स्नेहलता द्विवेदी आर्या

सलमा धीरे धीरे आकर मेरे बगल में झिझकते और शर्माती हुई ख़डी हो गई। पहले तो मैंने उसे तवज्जो नहीं दी लेकिन ज़ब वो किंकर्तव्यविमूढ़ होकर इधर उधर देखती हुई मेरे बगल में लगभग तीन मिनट तक घूमती रही तो मुझे लगा कि कुछ विशेष है जिसे यह बच्ची मुझसे कहना चाहती है लेकिन साहस नहीं जुटा पा रही है।

उसकी मन कि स्थिति भाँपते हुए मैंने पूछा- ‘यहाँ क्या कर रही हो क्लास में जाओ..’ कुछ रुक कर मैंने जाती हुई सलमा को बुलाया.. ‘क्या बात है.. कुछ हुआ है क्या.. बोलो.. बेटा..’
सलमा अचानक पलट गई और मेरे नजदीक आ गई उसने रुक रुक कर दबी जुबान में कुछ कहने का प्रयास किया लेकिन मैं सुन नही पाई। इतने में उसकी आँखे डबडबा गईं। मैं समझ गई कि स्थिति निश्चित रूप से असामान्य है और बच्ची को अपनी बात बतलाने के लिए एकांत और विश्वास चाहिए।
मैंने उठी और स्टॉफ रूम से इतर थोड़े एकांत में उसे ले गई और पूछा ‘क्यों रो रही हो? क्या बात है?’
“मैडम आप मेरी मदद कीजिएगा न” सलमा सिसकती हुई बोली।
मैंने सांत्वना देते हुए सलमा को विश्वास में लिया “निश्चित रूप से तुम्हारी मदद करने की कोशिश करुँगी लेकिन तुम मुझे पूरी बात बतलाओ.. “
‘मैडम आपको लाडली याद है?’ उसने पूछा।
“हाँ ” मैंने सकारात्मक उत्तर दिया।

” क्या हुआ लाडली के साथ? मैंने पूछा।
मैडम उसकी शादी 65 वर्ष के आदमी के साथ हुई थी। यही नहीं मैडम शादी के लिए लाडली के मम्मी पापा को रुपया भी मिला था।
अच्छा.. तुमको कैसे पता?
मैडम इस बात को तो सब जानते है और भी लड़की लोग की शादी इस तरह से हुई है। हमारे करीमगंज में ई सब तो होते रहता है.. सलमा लगातार बोलती रही और सुबकती रही।
“कोई विरोध नहीं करता?” मैंने पूछा।
“अरे नहीं मैडम, ई त आमदनी का तरीका हो गया है न आज इसकी बेटी तो कल उसकी बेटी।”

तुम क्यों रो रही हो?
“मैडम मेरी अम्मी और अब्बा भी मेरा निकाह इस तरह ही करना चाहते हैं। आखिर मैं क्या करूँ? मैं पढना चाहती हूँ मैडम।” सलमा जोर जोर से रोने लगी।
मैं भी असहज हो गई मुझे लगा कि इसके पहले कि मैं बात समझू इसे सार्वजनिक नहीं होना चाहिए।
“अरे! तुम चुप हो जाओ। सब लोग क्या समझेंगे? मैं देखती हुँ। तुम निश्चिंत रहो तुम्हारी पढ़ाई बंद नहीं होंगी..” इत्यादि मैंने कई तरह से समझाकर सलमा को भेज तो दिया लेकिन स्वयं सोच में पड़ गई, मेरे सामने लाडली का चेहरा और उसका मुझसे लाड भरा स्नेहिल लगाव मुझे झकझोरने लगा। फिर उसकी दुर्गति से मैं एकदम असहज होने लगी, घंटी बजी और लीजर का समय समाप्त हो गया,सलमा को भेजनें के बाद मैं वर्ग में गई लेकिन मेरी स्थिति सामान्य नहीं थी। आखिर मैं इस स्थिति से कैसे निपटूंगी और किसका किस हद तक साथ ले पाऊँगी। इस प्रकार के कई प्रश्न दिमाग़ में उमड़ घुमड़ कर मुझे मानसिक और भावनात्मक वेदना पहुँचा रहे थे।
वर्ग और क्रमशः वो दिन समाप्त हुआ। मैं रात में भी असहज थी और बेटियों को बिकने से बचाने कि बड़ी चुनौती थी।

मंथन का दौर चलते चलते मुझे लगा कि पहले मैं अपने एक शिक्षक़ सहपाठी बरकातुल्ला साहब से चर्चा कर के देखती हूँ क्योंकि मेरी नजर में उनकी प्रगतिशील सोच है और वो उस मुहल्ले के सम्मानित नागरिक माने जाते हैं। मैंने अपने प्रधानाध्यापक से चर्चा करने का मन बनाया। मुझे लगा कि मोबइल पर चर्चा करना आमने सामने सार्वजनिक चर्चा से बेहतर होगा इसलिए मैंने फ़ोन किया। रात के कोई साढ़े नौ बजे होंगे। बरकतुल्ला ने तुरंत मोबाइल उठा लिया।
जब मैंने उन्हें स्थिति बताई तो उनकी प्रतिक्रिया सधी और संतुलित थी। जैसे उन्हें सब पता है और इसमें कोई आश्चर्य नहीं है।
“अरे! आप कहाँ बीच में पड़ रही हैँ।”
मैं बरकातुल्ला की नसीहत से दुखी थी लेकिन हारी नहीं थी ।

थोड़ी देर बाद मैंने प्रियदर्शी सर ( प्रधानाध्यापक) को मोबाइल किया। वो देर रात होने के कारण थोड़ा असहज थे।
उन्होंने पूछा “कोई विशेष बात हैँ क्या मैडम.. इतनी रात में?”
“नमस्कार सर! सोने तो नहीं जा रहे थे न सर?”
“अरे नहीं नहीं.. क्या बात हैँ?”


मैंने विस्तार से इस कुरीति के बारे में उन्हें बताया। उन्होंने रूचि भी ली और संवेदना एवं रोष व्यक्त किया लेकिन डर रहे थे कि समाज की इस कुप्रथा के विरुद्ध आगे बढ़ने पर कहीं मामला धार्मिक रंग न ले ले। वैसे हम दोनों समझ रहे थे कि मामला सामाजिक और आर्थिक अधिक है, धर्मिक कम।


अस्तु हमने तय किया कि तालीम मरकज बाले आशिफ इक़बाल जो अपेक्षाकृत उस समाज पर अच्छी पकड़ रखते हैँ से बात की जाए और इसकी चर्चा प्रियदर्शी सर करेंगे संभवतः आशिफ इंकार नहीं कर पाएंगे।
दूसरे दिन विद्यालय में सामान्य कार्यक्रम के अनुरूप सबकुछ चल रहा था और पूर्व योजना के अनुसार आशिफ़ से प्रियदर्शी सर बात कर रहे थे। मैं जब पहुंची तो आशिफ़ ने ही बात छेड़ दी। यह मेरे लिए अच्छा अवसर था। मैंने उनसे पूछा डाला कि इस बारे में उनका क्या सोचना हैं?
आशिफ ने तपाक से कहा- “ये बहुत बुरा हैँ लेकिन..”
“लेकिन क्या?”
“हमलोग शायद ही कुछ कर पाएंगे।”
“तो क्या हम प्रयास न करें..”
“और यदि करें तो कैसे?”
“मुझे एक- दो दिन समय दीजिये।” आशिफ ने कहा।

सकारात्मक प्रगति देख प्रियदर्शी सर की आंखे चमक उठीं।
मैंने कुछ देर बाद अकेले में उनसे आग्रह किया कि शिक्षा समिति के अध्यक्ष की बहु से मिलना सही होगा क्योंकि रुकसाना से जब मुलाक़ात हुई थी तो वो पढ़ी लिखी और प्रभावी लगी थी। यह तय हुआ कि रुकसाना से मिला जाएगा।
इस प्रकार लग़भग एक हफ्ते तक यत्र-तत्र प्रयास के बाद मन में विश्वास जगा कि मुहल्ले के विशिष्ट लोगों के साथ इस मुद्दे पर बैठा जा सकता हैं।

इधर सलमा दो दिन से विद्यालय नहीं आ रही थी। मैं डर गई, कहीं मुझे देर तो नहीं हो गई। मैंने उसकी पड़ोस में रहने वाली उसकी सहेली रेहाना को बुलाया और कहा कि कल सलमा को लेकर आना कहना कि मैडम ने बुलाया हैं।
अगले दिन रेहाना अकेले आई “मैडम जी सलमा अब नहीं आएगी अगले जुमेरात उसका निकाह होगा।”
मेरा शक बिलकुल सत्य था। मेरे पास अब समय नहीं था। यद्यपि सामाजिक माणस तैयार था लेकिन अब तक कुछ भी प्राप्त नहीं था। सबकुछ समय और परिस्थिति के गर्भ में और मैं हिन्दू धर्मावलंबी। तो धर्म के आधार पर मेरी स्वीकार्यता उस समाज में शिक्षक के रूप में तो थी। लेकिन धार्मिक भावना यदि आहत होने लगती हैँ या इस प्रकार का भ्रम फैलता हैँ तो मेरी व्यक्तिगत स्थिति बहुत बुरी होगी।

इस प्रकार के अनेकानेक विचार मुझे परेशान कर रहे थे लेकिन मेरा शिक्षक धर्म और सलमा को दिए गए वचन ने मुझे विचित्र ढंग से बांध दिया था। मेरी स्त्री चेतना ने मुझे पूरी तरह झकझोर दिया।


मैं फिर सोचने लगी कि स्त्री तो लाडली कि माँ या सलमा की माँ या समाज की अन्य स्त्रियां भी हैँ तो क्या मानस स्थिति विविध प्रकार के संस्कार, सूचना, क्रमागत निर्मित अवधारणा की गुलाम होती है। समाज और परिवार समय-समय पर जिस प्रकार के बीज कोमल मानस में बोता हैं, कालांतर में उसके वृक्ष और फल प्राप्त होते हैं और नौजवान की आकांक्षा, सपने इन जाहिलियत के भेंट चढ़ जाते हैं। लेकिन हाय मैं इस बात को खुले में कह नहीं सकती थी और बंद दरवाज़े में कहना व्यर्थ था।
ख़ैर! मैंने ठाना चाहे जो हो संकल्प पथ पर आगे बढ़ना ही होगा। मैंने प्रियदर्शी जी, रुकसाना और आसिफ को उस शाम नश्ता पर बुलाया और मुखिया जी ( सुलेमान ) से अगले दिन मिलकर हमने अपनी बात बताई। इसमें रुकसाना अधिक कारगर सिद्ध हुई। फिर क्या था, समाज की बैठक हुई और केवल सलमा ही नहीं अन्य कई लड़कियां लाडली बनने से बच गईं। सलमा कुछ दिनों के बाद विद्यालय आई और मुझसे लिपटकर बोली- “मैडम मैं भी आपकी बेटी हूं।” मैंने भी उसे गले से लगा लिया और मेरी आँखें डबडबा गईं।

डॉ. स्नेहलता द्विवेदी आर्या
उत्क्रमित कन्या मध्य विद्यालय शरीफगंज, कटिहार

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