मृत्यु एक सत्य
मनुष्य जब इस अलौकिक दुनियाँ में आता है तो एक निश्चित अवधि के बाद इस खुबसूरत दुुनियाँ से अलविदा भी हो जाता है जो अटल सत्य है। यह जानकर भी हम मृत्यु से अनजान बने फिरते हैं। जन्म और मृत्यु के बीच का जो समय मिलता है अपने लिए कम प्रियजनों के लिए ज्यादा संघर्ष करते हैं फिर भी हमें मृत्यु जैसी सच्चाई से कोई अवगत नहीं करवाते हैं। हम रिश्तों के भंवर में इस तरह फँसे रहते हैं कि खुद को भूल जाते हैं कि इस जग में मेरा जन्म क्यों हुआ! हम अपने जीवन के उद्देश्य से परे हो जाते हैं। जिस तरह हम नौ मास अवतरण का इंतजार करते हैं, उसे उत्सव के रूप में स्वीकार करते हैं ठीक उसी प्रकार हम अकस्मात मृत्यु की भी तैयारी भी स्वीकार कर लें, यह जान लें कि कुछ भी हो हमारी/ उनकी मृत्यु तय है तो हमें इतना कष्ट का सामना ही न करना पड़े। किसी की मृत्यु पर संवेदना प्रकट करना चाहिए लेकिन हमें खुश भी होना चाहिए कि इन्हें अब इस नश्वर लोक से मुक्ति मिल गयी, इस सांसारिक जीवन से परे हो गया। लेकिन मैं भी दुविधा में हूँ कि हमारे जो अपनेपन का एहसास, हमारा लालन – पालन का भार जिस कंधे पर रहता है और अचानक हमें छोड़ जाता है ऐसा क्यों होता है?
शायद इसीलिए कि हम यह भूल जाते हैं कि उनका साथ हमारे संभलने तक का ही है या फिर हमें एक सही राह पर छोड़ने तक का ही है।
हम स्वार्थी मानव एक-दूसरे पर आश्रित रहते हैं इसलिए हमें मृत्यु से कष्ट होता है। अपनों से दूर होने का दर्द होता है फिर भी मैं मानता हूँ अपनों से बिछड़ना दुनियाँ का सबसे बड़ा कष्ट है लेकिन आजीवन नहीं ऐसा क्यों हम एक दिन, दो दिन या दस दिन फिर धीरे-धीरे भूलने की कोशिश करते हैं और कामयाब भी हो जाते हैं। ईश्वर ने हमें इस तरह से तैयार किया है कि हम कुछ भी संग्रह करने में असफल रहे क्योंकि हमारी मृत्यु जो निश्चित है। हमारे संग्रहण में उतना ही स्थान है जितने से हम अपने बहुमूल्य जीवन को मृत्यु तक पहुँचा सकें।
राकेश कुमार रंजन
उ. मा. वि. रंगदाहा मझुआ
फारबिसगंज, अररिया
👍
बहुत-बहुत सुन्दर!
बहुत अच्छा ।👌👌
वाह👌👌👌👌 सुंदर आलेख