जिज्ञासा-विजय सिंह नीलकण्ठ

जिज्ञासा
                ऐसी अमूर्त भावना जो हर किसी के अंदर समाहित रहती है। यह अमूर्त होते हुए भी इतना महत्वपूर्ण है जो मानव को महान से महानतम बना देती है। इसी के कारण ही हमारा मन हमेशा गतिशील रहता है। मानव ही नहीं अपितु पशु-पक्षी के अंदर भी यह भावना देखी जाती है। हर किसी के द्वारा यह अवश्य अनुभव किया गया होगा कि हमारे पालतू पशु-पक्षी कभी-कभी हमारी आँखों से आँखें मिलाकर जिज्ञासा प्रकट करते हुए दिखते हैं कि आगे क्या होने वाला है। यदि अपने जेब में हाथ रखी जाती है तो मूक जानवर भी अपनी आँखें तुरंत हमारी जेब की ओर ले जाते हैं और उससे क्या निकलने वाला है इसके बारे में जानने की कोशिश करते दिखते हैं।
          ज्ञान के भंडार का भी साधन यही है। यदि यह नहीं होती तो शायद जानने की इच्छा उत्पन्न ही न होती और ज्ञान रूपी खजाने का विकास नहीं हो पाता। सभी अधूरे रहते। पुस्तकों से ज्ञान प्राप्त करने में इसका भरपूर योगदान होता है। यदि किसी का प्रवचन सुनना हो तो यही हमें प्रेरित करती है जिससे उन बातों की भरपूर जानकारी हो जाती है जिससे पहले बिल्कुल अनभिज्ञ होते हैं। वर्तमान समय में जितनी भी वस्तुएँ दिखती हैं सब इसी का प्रतिफल है। इसी ने मानव को अंतरिक्ष में भेजा। इसी के चलते चाँद पर उतरने में लोग सफल हुए और वह दिन भी दूर नहीं होगा जब ब्रह्मांड के निर्माण के रहस्य का भी पता लग ही जाएगा। ऐसे अनेक उदाहरण हैं या कहा जाए तो हर वस्तुओं की जानकारी प्राप्त करने की जननी यही है बस यही है।
          लेकिन इसके विपरीत शिक्षक समाज में इसकी भरपूर कमी दिखती है। हर प्रकार की जानकारी प्राप्त करने को उत्सुक जिसे होना चाहिए, ज्ञान प्राप्त करने के लिए लालायित होना चाहिए वे इन जिज्ञासाओं को सुप्तावस्था में छोड़ दिए हैं। केवल इनकी जिज्ञासा दूसरों की कमी ढूँढने में लगी रहती है। ऐसी प्रवृत्ति वाले भी हैं जो उन कमियों के सुधार पर बल देते हैं लेकिन मूर्त रूप में नहीं अपितु अमूर्त रूप में देना चाहते हैं क्योंकि कोई भी अपनी कमी मानने को तैयार नहीं दिखते और अनेक तर्क-वितर्क के माध्यम से उसे सही साबित करने की भरपूर कोशिश की जाती है। इस समाज में भी कुछ इसका सही उपयोग कर सतत ज्ञान प्राप्त करने में लगे दिखते हैं। समाचार पत्र हो या कोई पत्रिका, छोटी पुस्तक हो या बड़ी या कोई लेख लिखा कागज का टुकड़ा ही क्यों न हो, उसे पढ़कर उसके अंदर की अच्छी बातों को आत्मसात किए बिना चैन से नहीं बैठते। ऐसे महात्मा को शत-शत नमन करना चाहिए और शुभकामना भी देना चाहिए कि वे आजीवन अपने अंदर विद्यार्थी बने रहने की भावना को बनाए रखें और बच्चों के भविष्य निर्माण में भरपूर सहयोग देते रहें।
          बहुत पहले की बात है। मैं जिस विद्यालय में कार्यरत था उस विद्यालय की पहली कक्षा में एक बच्ची ने दाखिला लिया था जिसका नाम “जिज्ञासा” है। जब वह पहले दिन विद्यालय आई तो मैंने देखा कि वह अन्य बच्चों की तुलना में वर्ग से बाहर है और अपने वर्ग को छोड़कर दूसरे वर्ग के दरवाजे पर खड़ी हो जाती और शिक्षकों के साथ-साथ अन्य छात्र-छात्राओं को निहारते हुए विद्यालय की हर छोटी-बड़ी वस्तुओं को बड़े ध्यान से देखते हुए प्रांगण में घूम रही थी। मेरे अंदर एक अजीब भावना जगी और अपनी कक्षा के बच्चों को एक गतिविधि देकर दरवाजे पर खड़ा होकर देखने लगा। उसने मेरी ओर एक नजर दौड़ाई और पुनः दीवारों पर लिखी पंक्तियों को बड़े ही ध्यान से देखने लगी। लगभग सभी लिखावट को देखते हुए वह कार्यालय के दरवाजे पर कुछ देर खड़ी हुई और बिना सकुचाते हुए मेरी ओर आने लगी। मैंने भी उसे देखकर ऐसे मुस्कुराया जिसमें पास बुलाने का भाव छुपा हुआ था। फिर क्या वह दौड़ी हुई मेरे पास आ गई और अपनी नन्ही और कोमल हाथों से मेरा हाथ पकड़ कर पूछी- सर आपता(आपका) नाम त्या(क्या) है? मैंने जैसे ही अपना नाम बताया वैसे ही तपाक से पूछ बैठी- आपते(आपके) गाँव का नाम त्या(क्या) है? मैं अवाक रह गया और उसे गोद में उठाकर बड़े प्यार से कहा- अले-ले-ले बिटिया सब कुछ आज ही जान जाओगी क्या? वह भी हँसने लगी, फिर नीचे उतरकर अपनी कक्षा की ओर दौड़ते हुए चली गई। अगले दिन वह टीफ़िन से पहले तक अपनी कक्षा में रही। हाँ, हर घंटी मेरी कक्षा की तरफ आकर मुझे देखकर चली जाती। टीफिन के समय मैं अपना लंच कर रहा था तभी वह आ गई और बगल में खड़ी हो गई। मैंने जल्दी-जल्दी लंच किया और उसे उसका नाम और घर के प्रत्येक सदस्य के बारे में पूरी जानकारी प्राप्त की। मैं इस बात से हैरान था कि वह अपने दादा से लेकर सभी भाई-बहनों के नाम के साथ-साथ सबों के काम भी बिना दम लिए बता दी। अब हर रोज वह टीफिन के समय मेरे पास आ जाती और तरह-तरह के प्रश्न पूछकर मुझसे जानकारी प्राप्त करते रहती। टीफिन से पहले की घंटी में मेरा रूटीन किसी कक्षा में नहीं होता था इसलिए मैं भी “जिज्ञासा” के प्रश्नों के उत्तर देने के लिए चौथी घंटी में ही अपना लंच खा लेता। “जिज्ञासा” भी मेरे पास आकर कई प्रकार के प्रश्नों को पूछ-पूछ कर उसका उत्तर जानकर चली जाती। वह प्रायः अजीब-अजीब प्रश्न पूछती। कभी चप्पल क्यों पहनते हैं, तो कभी जूते। कभी कमीज के बटन के बारे में तो कभी कमीज के बारे में। कभी कुर्सी के बारे में तो कभी श्यामपट्ट। कभी दीवार के बारे में तो कभी मैदान के बारे में। कभी-कभी तो ऐसा प्रश्न कर बैठती जिसका बड़ी सोच-समझकर उत्तर देना पड़ता। एक दिन उसने पूछ लिया कि सर जी! आपकी बेटी किस कक्षा में पढ़ती है? मैं अवाक रह गया कि क्या जवाब दूँ कि मेरी शादी नहीं हुई है। फिर मैंने मुस्कुराते हुए कहा मुझे बेटी नहीं है लेकिन तुम भी तो मेरी बेटी के समान हो। ठीक है- ऐसा कहकर वह अपनी कक्षा में चली गई।
          उसके प्रश्न पूछने का शिल-शिला चलता रहा। दसवीं कक्षा तक वह मुझसे प्रश्न पूछती रही और उसका उत्तर जान कर चली जाती। मैं भी प्रश्नों का उत्तर देकर प्रसन्न होता। मैट्रिक पास करने के बाद भी वह बीच-बीच में मिलने आती और साथ में कई प्रश्न भी लाती। हाँ, बड़ा होने पर प्रश्नों के प्रकार अलग होते लेकिन उसकी जिज्ञासा ने उसे उसके मुकाम तक पहुँचा ही दिया। वर्तमान समय में वह बैंक में पी.ओ. के पद पर कार्यरत है। अभी भी किसी प्रश्न में उलझ जाती है तो फोन कर उसका समाधान कर लेती है। मैं भी उसके प्रश्नों का उत्तर देने में स्वयं को गौर्वान्वित महसूस करता हूँ और अपनी पुत्री की तरह बड़े ही प्यार से बातें करता हूँ।
          इस तरह यदि सभी “जिज्ञासा” की तरह जिज्ञासु बन जाए तो फिर क्या कहने। खासकर “शिक्षक और शिक्षार्थियों” को जिज्ञासु अवश्य बनना चाहिए क्योंकि ज्ञान का खजाना कुएँ की तरह न होकर महासागर की तरह है। हम जितना जिज्ञासु बनेंगे उतना ही ज्ञान प्राप्त होगा और स्वयं में गौर्वान्वित महसूस करेंगे और देश के भविष्य निर्माण में अपना भरपूर योगदान दे सकेंगे।
(यह एक काल्पनिक कहानी है)
विजय सिंह नीलकण्ठ 
सदस्य टीओबी टीम 
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