” राम..नाम..सत्य..है,सब.. का..यही.. गत..है.राम..नाम…सत्य..है..सब ..का ..यही ..गत .है ” के नारे के साथ रंगीन कागज से सजी भागवत दास की अर्थी आगे-आगे चल रही थी । पीछे से टोले के सैंकड़ों लोग ढोल-मंजीरे की ताल पर समदन गाते हुए पछवरिया बाध की ओर बढ़ रहे थे “यहो..तन..छिये..हो..रामा..माटी.. के….. मुरतिया…हो ….माटी.. के…… मुरतिया… हो…।।
राह में खड़े पेड़ -पौधो की खामोशी देखकर ऐसा लग रहा था मानो अर्थी देखकर वो भी सिसक रहे हो । आम के पेड़ पर पत्तों के बीच से अचानक तेज फरफराने की आवाज आई और पंछीयों का एक झुंड पेड़ छोड़कर उड़ गया। बहियार की मिट्टी से सोंधी- सोंधीं खुशबू निकल रही थी । थोड़ी देर पहले दूर खेतों में फैली नव यौवन की मादकता में चूर हरियाली भी भागवत दास की अर्थी देख ठिठक पड़ा ।
मनोज ने अपने खेत के एक कोने में पिता भागवत दास की चिता सजवाई । चिता के पास मौजूद सभी आंखें नम थी । यही वो स्थान है जहां सबको जिन्दगी की कड़वी सच्चाई का स्पष्ट दर्शन होता है । राजा हो या रंक सबको एक रोज यहां आना ही पड़ता है । जिंदगी और मौत से भला किसकी यारी होती है ?। यहां जमींदार को भी लाश दफ़नाने के लिए गज भर जमीन के लिए घाट देना पड़ता है।
सुबह से कठोरता का चादर ओढ़े परिवार को ढांढस देने वाले मनोज, ज्यों ही पिता को मुखाग्नि दिया फफक कर जमीन पर गिर पड़े। कठोरता का सारा आवरण ममता के सामने चूर-चूर हो गया । पिता के चले जाने से मनोज के दरवाजे का रूप किसी विधवा की सिन्दूर विहीन मांघ की तरह हो गई थी।
थोड़ी ही देर में चिता की लपटे आसमान से बातें करनी लगी । नश्वर शरीर आग से मिलकर अंततः अपनी मंजिल पा ही लिया ।
पिता के दाह-संस्कार के बाद अब क्रिया-कर्म की सारी जवाबदेही मनोज के कंधे पर थी ।
” तुम चिंता क्यों करते हो, गांव की बैठकी में सब बात खुलकर बता देना । क्या गांव के लोग नहीं जानते है की बाऊ के इलाज में सब पैसा खरच हो गया । बजरखसोना, पूर्णियां वाला मुंहझौसा डाक्टर , इलाज के चक्कर में सब पैसा लूट लिया ! अब कौन कुबेर के धन से तीन सांझ भोज कीजियेगा ..,हे भगवान ! ” मनोज की पत्नी ललिता अपनी माली हालत पर माथा पीटते हुए मनोज से बोली ।
” ओह ! थोड़ा धीरे भी बोलो, रमेसरा के दरवाजे तक अवाज जाता है अरे !जो समाज का नियम है, उसको तो मानना ही पड़ेगा ना? ” खैनी खाकर हाथ झाड़ते हुए मनोज बोला हालांकि उनके माथे पर भी चिंता की लकीरें साफ देखी जा सकती थी ।
” मैने कब कहा की समाज के नियम की अवहेलना करो । जो सब दिन से चलता आ रहा है, हमलोग भी उसे मानेंगे , क्या एगारह आदमी को तीनों सांझ भोज देकर क्रिया-कर्म का निपटारा नही हो सकता है?” ललिता सवालिया लहजे में मनोज से बोली ,उनकी बातों में लाचारी थी ।
खैर रात आठ बजे गांव की बैठकी मनोज के दरवाजे पर शुरू हुई लगभग सारा गांव बैठक में मौजूद था । पहले तो वहां इधर-उधर की ढेरों बातें चली, फिर खैनी, बीड़ी का दौर भी चला बाद में मामला सही बिंन्दु पर आकर केन्द्रित हो गया ।
” हां तो मनोज बोलो क्यों बैठक बुलाये हो ” अनजान बनते हुए पंचो की ओर से दयाराम ने सवाल दागा ।
” पंच भगवान् जैसा की गांव की परंपरा रही है । किसी की मृत्यु के बाद सामर्थ्य के अनुसार नखबाल, श्राद्ध, संपीडन का सबजाना भोज टोले में दिया जाता है । उसी परंपरा का आज मुझे भी पालन करना है । मगर पुत्र धर्म का पालन करते हुए बाबूजी के इलाज में मेरा जो कुछ भी जमा पूंजी था , सब खर्च हो गया , ऊपर से बराभन टोली के विलास मिस्सर का भी कर्जा चढ़ गया है। मैं सबजाना भोज देने की स्थिति में नही हूं पंच भगवान,। ग्यारह आदमी से मेरा क्रिया -कर्म संपन्न करवाई जाय ” पंचो के बीच हाथ जोड़कर खड़ा मनोज लगभग डरते हुए बोला । उनकी बातों में वही याचना थी, जो याचना भिक्षा मांगने वाले किसी भिखारी ,की होती है ।
मनोज की बातों से थोड़ी देर के लिए पंचो में सन्नाटा पसर गया । हालांकि कुछ लोग दबी जुबान से कानाफूसी भी करने लगे जालेशर ने बजरंगीया के कान में फुसफुसाते हुए कहा “गजब..खेला..है, .इ..मनोजवा..का …..इ..गांव..का..नियम..तोड़ना..चाहता है। ..दूसरे..के..भोज..में..तो.सबेरे..पत्ता..बिछा..के..बैठा..रहता..है।..आज..अपनी..बारी..आई..तो..लाचारी..का..गीत..गा.. रहा..है..।..यही..सब..आदमी..के..देखा..
देखी..एकदिन..गांव..का..भोज..
उटठा..हो..जाएगा …।
।। देखो मनोज हमलोग एक ही बस्ती में रहते है । तुम्हारे हालात से हम परिचित है , लेकिन अगर तुम्हारे मन में सामुहिक भोज करने की इच्छा है , मगर पैसे की लाचारी के कारण ,ऐसा बोल रहे हो ,तो कोई बात नही । हमलोग तुम्हारी मदद करने को तैयार है ।। कामेश्वर ने सामाजिकता का दंभ भरते हुए मनोज से बोला ।
“अरे! मनोजवा..चिन्ता काहे करता है रे ! जग का मालिक जगदीश होता है । तुम हिम्मत करो…सब हो जाएगा ..कलेशरा.. को देखो उसको अपने बाबु के श्राद्ध के समय एक भी पैसा हाथ पर नही था ,लेकिन हिम्मत किया तो टोला में एकदम..थेय..थेय.. उठा दिया ,एकदम दंगल भोज.. चला…. की हो ! झमेली कका….” बजरंगीया ठीक वैसे ही मनोज का हिम्मत बढाते हुए बोला ,जैसे रेस में पिछड़ते धावक को देख हौसला बढ़ाते हुए उनके परिजन बोलते है । बूढ़ा झमेली ने भी सहमति में मुस्कुराते हुए सर हिलाया ।
सामाजिक ताने-बाने की चक्रव्यूह में अभिमन्यु की तरह फंसा मनोज को अंततः टोले वालों के मनोभाव के आगे हथियार डालना ही पड़ा ।
उधर सामाजिकता का दंभ भरने वाले कामेश्वर दास ने रूपैये के बदले मनोज से जमीन का सौदा किया। उनके पास 10 कट्टठा जमीन बंधक रखा गया । रिश्तेदारों को कार्ड भेजे गये , नियमानुसार तीन सांझ भोज का आयोजन शुरू हुआ ।
लम्बी कतार में बैठे लोग हंसी-ठिठोले के बीच भोज का आनंद ले रहे थे , मनोज हर आने-जाने वाले का आवभगत कर रहा था ।
“रामधारी भाई को पूरी दो” आग्रह करते हुए बजरंगीया बोला
..ने…ने..बाप..रे..बाप..बहुत..भाय गेले…।।
” अरे..ले..ने..हो..अच्छा..हमरा.. तरफ..से..लाय ” बजरंगीया ने रामधारी का हाथ हटाते हुए जबरन चार पूरी उनकी पत्तल में दिलवा दिया ।
।। हेहेहेहे..ओह..सब..पूरी..बेरबाद… करवेते..इ..छौरा..बजरंगीया.. हीहीहीही ।।
आग्रह करने वाले प्राणी आवश्यकता से ज्यादा भोजन लोगों के पत्ते पर डलवा देते थे , फलस्वरूप खाने से ज्यादा भोजन की बर्बादी हो रही थी ।
बर्बाद भोजन पर कुत्ते की मंडली टूट पड़ी थी । ” भू..भू..भू..भू भू ….हे..ले..ले..ले ..”
“हेरे..ला..ते..लाठी..मार..ते..हेई कुत्ता..के.. रे ! ” मगर ढेर दिन बाद मिले सम्पूर्ण भोजन के सामने कुत्ते किसी की बात सुनने को तैयार नही थे ।
तीन सांझ भोज के बाद अगले रोज दान-दक्षिणा के बाद घर पर पधारे रिश्तेदारों की विदाई की गई । किसी को साड़ी तो किसी को धोती गमछा देकर विदा किया गया ।
मेहमानों के खाली होने के बाद मनोज का घर विरान प्रतीत हो रहा था । अगले रोज दरवाजे पर खड़े टेन्ट वाले ने आवाज लगाई ” मनोज भैया हो, हो मनोज भैया ।
“हां दीलिप” …. दरवाजे पर मनोज ,टेन्ट वाले से मुखातिब होते हुए बोला ।
।।हां भैया हमारा ऊ टेन्ट वाला कुछ पैसा बच गया था । उ क्लीयर कर देते थे …..।।
बीच में बात काटकर ललिता बोली “अभी कहां से पैसा होगा दीलिप बाबु, 10 कट्टठा जमीन बचा था वही बंधक लगाकर भोज-भात किये है, हाथ मुट्ठी सब खाली हो गया है । अब भैया बाहर जाएंगे तबे ने पैसा होगा । ” मनोज चिंतित मुद्रा में ललिता की बातों में सहमति जता रहा था ।
अगले महीने लोगों का कर्जा तोड़ने और परिवार के भरण-पोषण के लिए मनोज को भारी मन से,मजदूरी करने के लिए केरल जाना पड़ रहा था । अपनों से बिछड़ने का ग़म मनोज के आंखों से सावन बनकर बरस रहे थे । गाड़ी दौड़ी जा रही थी और पीछे छूट रही थी पत्नी, बच्चें व जननी जन्मभूमि भरगामा ।
अरविंद कुमार, भरगामा