अस्पृश्य

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मेरे रक्त की हर बूंद से होता है नव सृजन

जिसके रुकने से धरा पर होता है नव आगमन

फिर क्यों कहते हो तुम अस्पृश्य हो पांच दिनों तक
हर माह हर माह में यह सुनती रहती

क्यों हूं अस्पृश्य उन पांच दिनों तक ,
जबकि पीड़ा सहती रहती

रोका टोकी है क्यों हर वनिता पर
टूटता है मेरी काया का हिस्सा, दर्द सहती हूं मैं थम थम कर
जैविक प्रक्रिया है मेरे तनु की
निशानी है मेरे स्वस्थ प्रजनन की
फिर क्यों कहते हो तुम तुम हो अस्पृश्य पांच दिनों तक
हर माह हर माह मैंसुनती रहती
मेरे तनु कलेवर में है होता है प्रभु का वास
फिर क्यों नहीं कर सकती मैं उन दिनों प्रभु का उपवास
निर्मल मन है मेरा स्वच्छ तो
क्यों नहीं हो सकती मैं शुद्ध शुचि फिर
मेरे मन का संशय है यह देता मुझे विचार
फिर क्यों कहते हो तुम हो अस्पृश्य पाँच दिनों तक
हर माह हर माह मैं सुनती रहती है
खुलकर क्यों नहीं कहते हैं सब कुछ क्योंकि
उन पांच दिनों, में उन पांच दिनों में उठते हैं बहुत अंतरमन में सवाल

उड़ना चाहती, खेलना चाहती ,जाना चाहती हूं नभ के पार
सुनो हे मानव ! तुम दो मेरे सवालों के जवाब
क्यों कहते हो अस्पृश्य हो तुम, हो पाँच दिनों तक अस्पृश्य हो पाँच दिनो तक

कंचन सिंह

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