गुरु दक्षिणा – सुधीर कुमार

Sudhir
 शिवरात्रि का दिन था । एक छोटा सा बालक मूलशंकर ( दयानंद सरस्वती के बचपन का नाम ) स्वच्छ रेशमी कुर्ता पायजामा के आकर्षक परिधान में अपने पिता के साथ हाथ में दूध का लोटा लिए आशुतोष भगवान शिवशंकर के अभिषेक के लिए मंदिर जा रहा था ।     
 मंदिर में बहुत भीड़ थी । भक्त गण नाच गा और पूजा पाठ कर रहे थे । चारो ओर श्रद्धा और भक्ति का अजब माहौल था । किसी तरह उसने अभिषेक संपन्न किया और मन में ठान लिया कि आज तो वह भगवान भोलेनाथ का दर्शन करके ही जाएगा । आज तो शिवरात्रि है इसलिए वे उसे अवश्य ही दर्शन देंगे । वह वहीं बैठ गया और रात की प्रतीक्षा करने लगा । धीरे धीरे दिन शाम और शाम रात में बदल गई । नाचते गाते भक्तो का उत्साह भी ठंडा पड़ गया और वे थककर मंदिर में ही जहां तहां सो गये ।      
 वह उसी तरह बैठा रहा । धीरे धीरे काफी रात बीत गई । अचानक उसने देखा कि कुछ चूहे भगवान भोलेनाथ के शिवलिंग पर चढ़कर उधम मचा रहे हैं और उस पर चढ़े प्रसाद को खा रहे हैं । वह सोचने लगा , कैसे हैं भगवान आशुतोष जो अपने ऊपर चढ़े चूहे को भी नहीं भगा सकते ? क्या वे सिर्फ पत्थर ही है ? कोई सजीवता नहीं है उनमें ? उसे तो जीवित , जाग्रत , सजीव भोलेनाथ का दर्शन चाहिए ।    
 वह घर से निकल पड़ा और जगह जगह घूमने लगा। उसे कितने ही साधु संत मिले , महात्मा मिला , पर कोई भी उसके ज्ञान की प्यास को बुझा नहीं सका । किसी ने उसका सिर मुड़ाकर जनेऊ पहना दी , किसी ने उसे ब्रह्मचारी बना दिया तो किसी ने उसे वेद , शास्त्र और धर्म ग्रंथ पढ़ाया पर ज्ञान की प्यास बुझी नहीं , बढ़ती ही गई ।    
 अंत में उसे स्वामी बिरजानंद मिले । अस्सी वर्ष के वयोवृद्ध और नेत्रहीन पर ब्रह्म ज्ञान से परिपूर्ण संत ! वह उनके चरणों में गिर पड़ा , " हे ज्ञान के सूर्य ! विद्या के सागर ! मुझे राह दिखाइए । मेरे सामने अंधेरा ही अंधेरा है । "   
 उन्होंने उसे उठाकर गले से लगा लिया और कहा , " कौन हो पुत्र ? पहले अपने बारे में कुछ बताओ । "    
 उसने उन्हें अपना पूर्ण परिचय दिया तो स्वामी जी ने पूछा , " अब तक किन किन ग्रंथों को पढ़ा है तुमने ? "    
मूलशंकर ने उन्हे उन सभी ग्रंथों का नाम बताया जो वह अब तक पढ़ चुका था । सुनकर स्वामी जी हंसे , फिर बोले , " अरे , तू तो पहले से ही बहुत भरा हुआ है ! मैं तुम्हें कैसे भरूंगा ? पहले खाली हो जा तू ! बिल्कुल खाली ! "   
 और वह बालक बिल्कुल खाली हो गया । खाली घड़े की तरह ! फिर स्वामी जी ने उसमें अपने ज्ञान का सूर्य भर दिया और उसकी वर्षो की पिपासा शांत कर दी ।    
 उसका नाम बदलकर उन्होंने रख दिया दयानंद । वर्षों तक उनकी सेवा करने के पश्चात चलते समय दयानंद ने उनसे पूछा , " आपको मैं क्या दक्षिणा दूं गुरुदेव  ? "   
 वे बोले , " तू संसार में जा और ज्ञान का प्रकाश फैला । लोग वेद विमुख हो गये है । उन्हें वेदों की ओर लौटा और सनातन धर्म को पुनर्जीवित कर । "    
 और फिर दयानंद सरस्वती निकल पड़े संसार में और अपने गुरु को दक्षिणा देने लगे , कभी वेदों की ओर लौटो का नारा देकर , कभी आर्य समाज की स्थापना कर , कभी मूर्ति पूजा का विरोध कर , तो कभी पोंगा पंडितों को शास्त्रार्थ में हराकर ।    

सुधीर कुमार किशनगंज बिहार।

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