हम सब प्रकृति के अंग और सहचर हैं साथ ही सबसे बुद्धिमान होने का गौरव भी हमें प्राप्त है। सभ्यता के विकास के साथ हमने अपनी सुविधाओं के लिए संसाधनों के अनवरत दोहन करने में अपनी सारी बौद्धिक और शारीरिक शक्ति लगा दी इसलिए उस प्रकृति का विनाश कर डाला जिसके हम सहचर होने का दंभ भरते है। इस प्रकार प्रकृति में अवांछित परिवर्तन लाकर हमने प्रकृति को प्रदूषित किया। अपने स्वयं के लिए सुविधाओं का विकास करने के क्रम में प्रकृति का विनाश किया, उसे विद्रूपित किया और प्रकृति ने भी समय समय पर अपना रौद्र रूप दिखाया – कभी महामारी कोरोना के रूप में तो कभी दुर्भिक्ष और कभी भूकम्प , बाद इत्यादि।
हम प्रकृति के दोषी हैं। वास्तव में हमारी भारतीय संस्कृति प्रकृति के साथ सामंजस्य बना कर चलना दिखती है। यह सर्वत्र शांति और सबके सुख की कामना करने वाली सर्व समावेशी संस्कृति है। हम पश्चिम की चकाचौंध में अपनी मूल संस्कृति को भुला कर उपभोक्तावादी संस्कृति के गुलाम हो गए और अंधाधुंध पेड़ पौधों नदी नाले जल मृदा वायु और व्योम को नष्ट किया। हमें परस्पर सहअस्तित्व का भाव उत्पन्न करना होगा। अपनी आवश्यकता को कम कर संसाधनों का संरक्षण के कारण ही होगा। यदि हम प्रकृति को प्रदूषण से नहीं बचाएंगे तो हम स्वयं भी नष्ट हो जाएंगे। अतः यह हम सबके हित में है कि हम उपभोक्तावादी संस्कृति को छोड़कर समन्वयवादी विचार धारा के साथ सम्यक संतुलित विकास की ओर अग्रसर हो।
डॉ स्नेहलता द्विवेदी आर्या
उत्क्रमित कन्या मध्य विद्यालय शरीफगंज कटिहार