वर्षा ऋतु की प्रातःकाल थी। आकाश हल्के बादलों से ढका था और धरती पर ओस की बूंदें फूलों की पंखुड़ियों से फिसल रही थीं। मैंने निश्चय किया कि आज एक दिन प्रकृति की गोद में बिताया जाए — न मोबाइल, न शोर, न यंत्रों की दुनिया, बस मैं और हरितिमा का साथ।
मैं पटना से सटे एक गाँव की ओर निकल पड़ा — जहाँ अब भी खेतों में हल चलते हैं, तालाबों में कमल मुस्काते हैं, और पेड़ों पर कोयलें गाती हैं। जैसे ही शहर की सीमा लांघी, मानो मैं एक दूसरे लोक में आ गया।
सड़क के दोनों ओर फैले खेतों में धान की बालियाँ हवा में झूम रही थीं। बगुले, सारस और नीलकंठ खुले आकाश में कलाबाजियाँ कर रहे थे। एक जगह मैंने रुककर नदी किनारे बैठने का निश्चय किया। गंगा की एक छोटी उपधारा वहां शांति से बह रही थी — जल इतना स्वच्छ कि तल तक के पत्थर दिखें। मैंने वहीं बैठकर अपने जूते उतार दिए और नंगे पाँव मिट्टी को महसूस किया। वह मिट्टी ठंडी थी, सौंधी थी, जीवन-सी सजीव।
अचानक मेरे पास एक गाँव का बालक आया। उसके हाथ में एक मटकी थी, जिसमें वह पानी भरने आया था। मैंने उससे पूछा, “बेटा, स्कूल जाते हो?” उसने मुस्कुरा कर कहा, “पहले तो जाऊँगा नदी में नहाने, फिर पेड़ से अमरूद तोड़ूँगा और फिर स्कूल!” उसकी आँखों में प्रकृति की चमक थी।
वहीं पास में एक वृद्ध किसान अपने बैल को स्नेह से सहला रहा था। मैंने उसके साथ कुछ समय बिताया। वह बता रहा था कि किस तरह मौसम में बदलाव आया है – बारिश कभी समय पर नहीं होती, गर्मी बहुत बढ़ गई है, तालाब सूखने लगे हैं। वह चिंतित था, पर आशावान भी – बोला, “अगर लोग पेड़ लगाएँ, जल बचाएँ और खेतों को ज़िंदा रखें, तो प्रकृति भी फिर हरे रंगों में लौट आएगी।”
शाम होते-होते मैं एक आम के बाग में जा पहुँचा। वहाँ पक्षियों की चहचहाहट थी, हवा में मिट्टी और पत्तों की मिली-जुली महक थी। मैंने अपनी डायरी निकाली और लिखा –
“प्रकृति हमें केवल भोजन, जल और वायु नहीं देती, यह हमें अपनापन, शांति और जीवन का संगीत भी देती है।”
उस दिन मैं देर शाम लौटा, पर मेरे साथ एक नया बोध था — पर्यावरण केवल देखने की वस्तु नहीं है, यह जीने की शैली है। यदि हम उसकी रक्षा करें, तो वह हमें हर दिन सौंदर्य, संतुलन और स्नेह की वर्षा देगी।
-सुरेश कुमार गौरव, प्रधानाध्यापक
उ.म.वि.रसलपुर, फतुहा ,पटना (बिहार)