महाभारत के वनपर्व में महामुनि मार्कण्डेय जब पाण्डवों से मिलते हैं तो पाण्डव उनसे बहुत सारे प्रश्न करते हैं, उनमें एक प्रश्न यह भी होता है, ऋषिवर, क्या द्रौपदी से अधिक कोई पतिव्रता नारी होगी ? उत्तर में मार्कण्डेय जी माता सावित्री की कथा सुनाते हैं।
सावित्री जब विवाह योग्य हो जाती है तो उनके पिता महाराज अश्वसेन कुछ वृद्ध मंत्रियों के साथ उन्हें वन की ओर यह कहकर भेजते हैं कि तुम्हें जो भी सुयोग्य और सुपात्र लड़का पसंद हो जाय, उससे ही मैं तुम्हारा विवाह करवाऊंगा ।
जब वह सत्यवान को पसंद कर घर लौटकर आती है उस समय देवर्षि नारद महाराज अश्वसेन के पास विराजमान रहते हैं। सावित्री पर नजर पड़ते ही देवर्षि ने उनके पिता से पूछा कि अपनी पुत्री के लिए सुयोग्य वर देखा कि नहीं? अश्वसेन ने बेटी सावित्री से पूछा कि तुमको मैंने सुयोग्य-सुपात्र लड़का देखने के लिए भेजा था, उसका क्या हुआ? सावित्री ने सत्यवान के विषय में बताया। देवर्षि नारद यह सुनकर अचंभित हो गये, कहने लगे, “सम्प्रति जितना गुण सत्यवान में है, उतना गुण इस समय संसार के किसी लड़के में नहीं। वह महाराज द्युमत्सेन का पुत्र है, जो किसी कारणवश नेत्रहीन और राज्यच्युत हो चुके हैं। किन्तु, सत्यवान की मृत्यु एक वर्ष पश्चात् अमुक तिथि को हो जाएगी ।” यह सुनकर भी सावित्री का निश्चय अटल रहा, उन्होंने सत्यवान से ही विवाह का निर्णय किया, क्योंकि मन से वह सत्यवान का वरण कर चुकी थी । तब देवर्षि नारद ने उनके सुहाग की रक्षा के लिए सही उपाय बताया । सही उपाय प्रायः व्यर्थ नहीं जाता। कविवर मैथिलीशरण गुप्त ने भी लिखा है, “कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला?”
सावित्री के दृढ़निश्चय का सम्मान उनके पिता ने किया। सावित्री का विवाह सत्यवान से हुआ। महल की राजकुमारी एक कुटिया में चली गयी । विदुरनीति कहती है, “कुछ समय के लिए धन से हीन होने वाला व्यक्ति गरीब नहीं कहलाता, प्रत्युत् सदाचार से हीन हो जाने वाला व्यक्ति गरीब होता है।” सदाचरण, कर्त्तव्यपरायणता, धर्माचरण, श्रेष्ठ विचारों के साथ प्रसन्नता हो तो वन की कुटिया भी किसी महल से कम नहीं।
सावित्री अपने सास-ससुर और पति के साथ कुटिया में खुशीपूर्वक अपना अहर्निश व्यतीत करने लगी । समय प्रसन्नता के साथ बीतता गया । पति सत्यवान दिन भर मेहनत कर वनों से लकड़ी काटकर घर लाते, वे प्रतिदिन सूर्यास्त से पूर्व ही घर लौट जाते थे । समय खुशी-खुशी बीतता चला गया । सत्यवान के मृत्यु की तिथि नजदीक आ गयी । देवर्षि नारद की अनुकम्पा से सावित्री को पति सत्यवान की मृत्यु की तिथि का ज्ञान था । उनके बताये गये उपाय के अनुसार, मृत्यु से तीन दिवा पूर्व ही व्रत करना प्रारंभ की और तीन दिन, तीन रात्रि उन्होंने व्रत किया । मृत्यु की तिथि के दिन सावित्री हठ करके सत्यवान के साथ ही वन में चली गयी । सत्यवान लकड़ी काट ही रहे थे, उसी समय उनका मन घूमने लगा । सावित्री नीचे बैठी थी । वृक्ष से नीचे उतरकर उन्होंने अपनी भार्या सावित्री से कहा, “प्रिये ! मेरा मन घूम रहा है।” सावित्री ने प्रेमपूर्वक उन्हें अपने अंक में सुला लिया। मृत्यु के समय यमदेव प्रकट हुए। सावित्री को धर्माचरण के कारण यमदेव को देखने की शक्ति प्राप्त हो गयी थी । सावित्री ने मृत्यु के देवता यमदेव को सादर नमस्कार किया। यमदेव के कर्त्तव्य-पालन में और दैव के विधान में सावित्री ने कोई व्यवधान नहीं किया । यमदेव जब सत्यवान के प्राण ले जाने लगे तो सावित्री ने उनका अनुगमन किया। यमदेव माता सावित्री की शिक्षाप्रद बातों से संतुष्ट होकर उन्हें एक पर एक अभीष्ट वरदान देते चले गये।
प्रथम और द्वितीय वर- मेरे ससुर को नेत्र और राज्य की प्राप्ति, तृतीय वर- मेरे पिता को सौ औरस(तेजस्वी) पुत्र की प्राप्ति, चतुर्थ वर- मुझे सौ औरस(तेजस्वी) पुत्र की प्राप्ति। यमदेव ने हर वरदान पर तथास्तु कहा ।
सावित्री ने कहा, मैं अपने पति के प्राण नहीं मांग रही हूं। किन्तु आपके अंतिम वर के अनुसार, मुझे दाम्पत्य धर्म के पालन बिना पुत्र की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसलिए मेरे पति के प्राण लौटा दीजिए। यमदेव ने कहा, “पुत्री, मैं तुम्हारे पति के प्राण वापस करता हूं।” उनके पति जीवित हो उठे । इस प्रकार यमदेव से उन्हें पाँच वरदान प्राप्त हुए ।
इधर ससुर जी के पास ऋषि-महर्षियों का जमघट लगा हुआ है। पिताजी इकलौते बेटे सत्यवान के विलंब से आने पर चिंतित हो रहे हैं। ऋषि-महर्षि उन्हें सांत्वना दे रहे हैं कि पुत्री सावित्री आपके पुत्र के साथ है, आपका पुत्र अवश्य ही स्वस्थ और कुशल हो आता ही होगा । इधर सूर्यास्त के उपरांत सत्यवान भी व्यग्र होकर कहते हैं, “सावित्री, घर शीघ्र चलो, आज तक घर जाने में मैंने सूर्यास्त नहीं किया है। सूर्यास्त के बाद घर लौटने पर मेरे पिताजी मेरे लिए अत्यंत चिंतित हो उठते हैं।” सावित्री उन्हें पकड़कर सकुशल घर ले आती है। सत्यवान और सावित्री ने माता-पिता के साथ घर पर बैठे सारे ऋषि-महर्षियों को सादर प्रणाम किया। ससुर जी की आंख वापस आ गयी । कुछ देर पश्चात् राज्य से एक व्यक्ति आया और कहा, राजा किसी के आक्रमण के भय के कारण पलायन कर गये हैं। अब सभी आपकी प्रतीक्षा में है। ससुर जी को खोया राज्य भी मिल गया । ससुर जी महाराज द्युमत्सेन कहने लगे, ‘यह चमत्कार कैसे हो गया ?’ ऋषियों ने कहा कि यह तो पुत्री सावित्री ही बताएगी । सावित्री को बुलाकर ऋषियों ने पूछा, ‘पुत्री, तुम बताओ कि यह सब क्या हुआ?’ सावित्री ने विनम्रतापूर्वक सबकुछ बताया। सभी कह उठे, “तुम धन्य हो पुत्री !” माता सावित्री के सदाचार, धर्माचरण, कर्त्तव्यपरायणता, सद्बुद्धि, भक्ति और ज्ञान के बल पर उनका खोया सबकुछ उन्हें प्राप्त हो गया ।
(यह कथा महाभारत के वनपर्व से लिया गया है।)
धन्य है वह देश जहां सीता, सावित्री, उर्मिला(लक्ष्मण की पत्नी), द्रौपदी, अहिल्याबाई होलकर, दुर्गाबाई, सिस्टर निवेदिता जैसी महान स्त्रियां रहती हैं।
सबके मूल में है शिक्षा, उच्च शिक्षा – महिलाओं की शिक्षा, साथ ही भारतीय संस्कारों से युक्त नैतिक शिक्षा। शिक्षा पर हमें सदैव बल और बढ़ावा देने की आवश्यकता है । फिर सबकुछ स्वत: प्राप्त हो जाने की संभावना है।
किसी महापुरुष ने कहा है, “किसी देश की उन्नति का पता उस देश में नारियों की स्थिति से लगता है।”
हमें यह कहते हुए हर्ष हो रहा है कि हमारे देश भारत में भी स्त्रियांँ सिविल सेवा, अंतरिक्ष, खेल सभी क्षेत्रों में प्रथम दस में रहती हैं। प्रथम दस में रहते हुए भी पुत्री के रूप में और कुशल गृहिणी बनकर पूरे घर को भी संभाल लेती हैं।
गिरीन्द्र मोहन झा
+२ भागीरथ उच्च विद्यालय, चैनपुर-पड़री, सहरसा