बचपन में कोई सिखाता नहीं कि झूठ बोलना बुरा है, पर जब बोलते हैं और पकड़े जाते हैं – तभी असल शिक्षा मिलती है।
मुझे याद है – वह मेरी तीसरी कक्षा की बात रही होगी।
उस दिन स्कूल में गणित की कक्षा थी, और मुझे जोड़-घटाव से वैसी ही घबराहट होती थी जैसी बकरी को शेर की आवाज़ से। लेकिन क्या किया जाए – परीक्षा सिर पर थी और मास्टर जी की डांट हर रोज़ बढ़ती जा रही थी।
मेरे पास उस दिन गृहकार्य अधूरा था। कारण बहुत छोटा था – मैं खेल में मग्न हो गया था।
पर हिम्मत नहीं हुई सच कहने की।
टिफ़िन के समय मैंने अपनी कॉपी छुपा ली और जब वासुदेव सर ने पूछा – “कहाँ है तुम्हारा होमवर्क?”
तो बिना कुछ सोचे मैं बोल उठा – “सर, कॉपी घर पर रह गई है। माँ ने उसे धोने में भीगने से बचाने के लिए अलग रख दिया था…”
यह मेरा पहला झूठ था — मासूम सा, लेकिन आत्मा के भीतर कुछ खटक गया।
सर ने संदेह भरी आँखों से मुझे देखा। शायद अनुभव उनके पास हमसे अधिक था।
उन्होंने कुछ नहीं कहा, बस मुस्करा दिए और कहा – “अच्छा, कल ले आना। लेकिन याद रखना, झूठ पकड़ा गया तो सज़ा दोगुनी होगी।”
रात भर नींद नहीं आई। मन के भीतर कोई अदालत चल रही थी।
सुबह हुई, स्कूल गया – और स्वयं ही सर के पास जाकर कहा, “सर, झूठ बोला था… कॉपी घर नहीं, मन में छिपा दी थी।”
सर ने गहरी साँस ली।
कठोरता के स्थान पर उन्होंने कहा, “तुमने मुझसे ज़्यादा खुद से माफ़ी माँगी है – यही तुम्हारी सज़ा है।”
लेकिन फिर उन्होंने पूरे पीरियड में मुझे खड़ा रखा।
और कहा, “याद रखना गौरव, झूठ तुम्हें क्षणिक राहत दे सकता है, पर सत्य ही दीर्घकालिक सम्मान देता है।”
उस दिन के बाद से झूठ के लिए मन इतना असहज हो गया कि कोई बात कहने से पहले आत्मा की अदालत बैठ जाती है।
-सुरेश कुमार गौरव, प्रधानाध्यापक
उ.म.वि.रसलपुर, फतुहा, पटना (बिहार)