दिसंबर के महीना! दिल्ली की ठंड। शीत लहरी! रात के 10 बज रहे थे। ऊना अपनी माँ और पापा के साथ मौसी के घर से अपने घर आ रही थी। रमेश, ऊना के पापा कार ड्राइव कर रहे थे। ट्रैफिक सामान्य से कम थी। कुहासा के कारण गाड़ी चलाने में रमेश को परेशानी हो रही थी। बाहर विज़िबिलिटी 50 मीटर तक भी नहीं थी।
ऊना 3 री कक्षा में डी पी एस विकासपुरी में पढ़ती थी। बहुत वाचाल। तीक्ष्ण बुद्धि वाली बच्ची थी। अनायास ही सैकड़ों प्रश्न पूछती..
माँ ! गाड़ी के बाहर उजला उजला क्या है?
बेटा इसे कुहासा कहते है?
कुहासा क्या होता है?
ठंडे के दिनों में हवा में पाई जाने वाली पानी की बूँदें इकट्ठी होकर भारी होती हैं और हवा में तैरती है, इसे कुहासा कहते हैं , शैल नें प्यार से समझाया।
हवा में पानी होता है! ऊना आश्चर्य से बोली। फिर हमलोग भींगते क्यों नहीं?
बहुत कम पानी होता है, बहुत छोटी छोटी बूंदें हवा में तैरतीं हैं। जब ये बूंदें ठंडे दिनों में एकत्रित होकर बडीं होतीं है तो कुहासा होता है।
हवा में दिखतीं क्यों नहीं ?
क्योंकि सामान्य ताप पर ये बहुत छोटी होतीं हैं। तापमान कम होने पर ये जुड़कर बड़ी होतीं है..
तापमान क्या होता है..
शैल के लिए सरल भाषा में समझाना मुश्किल था। रमेश ने धीरे -धीरे कार रोकी और उतरते हुए सबको गाड़ी से बाहर बुलाया।
शैल समझ नहीं पा रही थी। बाहर निकलते ही हवा की ठंडक से ठिठुरन का अहसाह हुआ।
डैडी मैं नहीं आती। क्यों? रमेश ने पूछा।
अरे बाबा ठंड है।हु.हु..
हाँ बेटा, बाहर तापमान कम है न..
शैल मुस्कुराने लगी।
डैडी वो क्या है?.. कहते हुए सड़क के किनारे ठिठुरते हुए पड़े व्यक्ति की ओर ऊना बढ़ चली।
बेटा ! अरे वो ठंड के कारण बाबा परेशान हैं..
ये यहाँ क्यों है? सड़क के किनारे! इनका घर नहीं है क्या?..
नहीं बेटा ये गरीब है… कमजोर हैं..रमेश बोल ही रहे थे कि..
हनको भी ठंड लग रही है न..ऊना बोल उठी।
हाँ बेटा!
तो क्या हमलोग वो कम्बल दे सकते हैं? अच्छी बात है न पापा.. कहते हुए ऊना नें रमेश की ओर देखा।
लेकिन उसे तो हमलोगों नें अपने लिए लिया है..
लेकिन पापा आप तो मौसी माँ के यहाँ कह रहे थे कि बूढ़ों गरीब की मदद करनी चाहिये.. फिर हम क्यों नहीं दे सकते.. उना का बाल मन उलझ गया। आज ही पापा ने कुछ देर पहले जो कहा वो करने में आखिर पापा को क्या परेशानी है, ऊना समझ नहीं पा रही थी।
रमेश और शैल एक दूसरे को देखने लगे। किंकर्तव्यविमूढ़!प्रश्नवाचक नजरों से..
एक अबोध बालमन , निश्छल , कल्याणकारीऔर निर्विकार ..
मम्मी है न.. हमलोग तो दे ही सकते हैं। हमारे पास तो ढ़ेर सारा कम्बल , रजाई है.. ऊना नें माँ से कहा।
रमेश समझ नहीं पा रहे थे कि बालमन में बन रही छवि को क्या मोड़ दें.. वो जो अपने पिता में आदर्श देखती है, क्या एक झटके से तोड़ दें , या फिर कम्बल ही तो है, घर में अभी इसकी कोई खास आवश्यकता भी नहीं है.., ऊना के द्वंद से अधिक रमेश को निर्णय लेने में परेशानी हो रही थी।
शैल नें ऊना को गोद में उठा लिया हँसते हुए बोली क्यों नही , हम विल्कुल दे सकते हैं..
फिर दें दूं क्या?.. इना कार की ओर बढ़ने लगी।
क्यों नही ..मैं लाता हूँ..
रमेश कार से नया कम्बल उठाकर लाये औऱ तीनों उस ओर बढ़ चले। ऊना उस बूढ़े व्यक्ति को कम्बल देकर खुश हो गई। बाबा ठंड में क्यों बैठे हो.. आपको ..
बेटा बाबा को सोने दो..रात है ना.. शैल हवन ऊना को समझाया।
ओके ओके ठीक है ..बाय बाबा.. ऊना नें हाथ हिलाया। ऊना प्रसन्न थी। किसी की मदद करने का आनंद उसके चेहरे पर सहज ही झलक रहा था.. आनंदित , खुश..
रमेश ऊना को दुलार से अपने गोद में लेकर कार की ओर चल पड़े।
सभी कार में बैठ गए। रास्ते में रमेश सोचने लगे..आखिर व्यवहार और आदर्श विचार में इतना अंतर क्यों आ जाता है। आखिर जब हम अच्छा सोचते है, अच्छा बोलते हैं तो उसपर तनिक भी अमल करना इतना कठिन क्यों। ऊना तो ठीक ही कह रही थी, मैनें तो आज ही इसकी चर्चा की थी। आखिर आदर्श के बशीभूत हम बच्चों सा निर्मल भाव रख कर आवश्यकतानुसार व्याख्यान देते हैं, बड़ी बड़ी बातें करते है , लेकिन व्यवहार में ..!ऊना का शुद्ध निर्मल भाव देख आंखें भर आईं, गर्व की अनुभूति हो रही थी। मामला कम्बल का नहीं उससे जुड़े भाव का था , निश्चल विचार कथा।। सोचने लगे क्या शिक्षा, समाज व्यक्ति को जटिल बनाता है..क्या बचपन से बड़े होने की यात्रा में उत्पन्न जटिलता मानव को मानवता से दूर करती है। मेरी संवेदना पर शिक्षा, पद, लोकाचार, समाज , घर -परिवार आदि के कई परदे लग पड़े हैं। क्या मेरा मन पढ़लिख कर सचमुच विकसित हुआ। या फिर… मानवमूल्यों का लोप! जीवन यात्रा में मन का विकास हो रहा है या मन क्रमशः विकृत आडम्बर से भरा जा रहा है। यह कैसी यात्रा..
गाड़ी घर पहुँच गई, ऊना शांत सो रही थी।
डॉ स्नेहलता द्विवेदी आर्या
उत्क्रमित कन्या मध्य विद्यालय शरीफगंज, कटिहार