ग्रामीण सामाजिक परंपरा एवं संस्कृति पर आधारित श्री विमल कुमार”विनोद” लिखित लघुकथा “परंपरागत संस्कृति की झलक”प्रस्तुत है।
मोहन नामक एक शहर के रहने वाले शिक्षक की नियुक्ति ग्रामीण क्षेत्र में हो जाती है।ग्रामीण क्षेत्र का एक ऐसा विद्यालय जो कि वर्षों से बंद पड़ा था।सरकार के द्वारा बहुत दिनों के बाद उस विद्यालय में मोहन की नियुक्ति शिक्षक के रूप में हुई।मोहन जैसे ही विद्यालय में योगदान किये,इस बात की चर्चा पूरे गाँव में जंगल की आग की तरह फैल गई।संपूर्ण गाँव के लोग बारी-बारी से विद्यालय में आकर मास्टर साहब का सम्मान कर रहे थे।अधिकतर लोग मास्टर साहब को पैर छूकर प्रणाम कर रहे थे तो कुछ लोग हाथ जोड़ कर प्रणाम कर रहे थे।इसी बीच एक महिला जो कि माथे पर घूँघट ली हुई थे जिसका चेहरा पूरी तरह से ढका हुआ था एक लोटा पानी और देहाती कनखा वाला पुराना काँसा वाला थाली लेकर सबसे पहले मास्टर साहब का पाँव थाली में रखकर पखारती है,फिर अपने साड़ी के आँचल से पोंछती है तथा दोनों हाथों से पैर छूकर प्रणाम करती है।उसके बाद एक थाली में एक कप चाय और एक ग्लास पानी मास्टर साहब को पीने के लिये देती है।उसके बाद दूसरा एक ग्रामीण मास्टर साहब को अपने घर पर खाने के लिये आमंत्रित करता है तथा घर में पहले उसे खटिया में बिछावन करके बैठाता है,पुनः आसन लगाकर उसे सप्रेम अरहर का दाल,भात,कुंदरी का भूजिया,आम का चटनी,आलू का चोखा,भोजन कराती है।विद्यालय का पहला दिन मास्टर साहब को बहुत मजा आ रहा था,चार बजे के बाद जैसे ही छुट्टी होती है ग्रामीण लोग मास्टर साहब को कहते हैं कि सर जी यहीं पर रात को रूक जाइये न!इस पर मास्टर साहब पहले तो कहते हैं कि शहर में रहने का कमरा ले लेंगे,लेकिन ग्रामीण के अनुरोध पर गाँव में ही रूक जाते हैं।एक ग्रामीण मास्टर साहब को अपने घर ले जाते हैं।रात में भात,दाल,सब्जी,भूजिया, आम का अचार खिलाते हैं,पुनः बाहर में जहाँ पर वह घर वाला सोता है,मास्टर साहब का भी एक खटिया में बिछावन लगा देते हैं ।सुबह मास्टर साहब को एक लोटा पानी और एगो दतवन मुँह धोने के लिये दिया जाता है।फिर लाल चाय पीने के लिये दिया जाता है,उसके बाद मास्टर साहब को अरहर का दाल,भात,परवल का सब्जी,चटनी आदि भोजन कराया जाता है।ग्रामीण परिवेश में पहले दिन से ही मास्टर साहब को बहुत मजा आने लगा।दूसरे दिन मास्टर साहब अपने रहने के लिये कमरा खोजने लगे,जिस पर गाँव के प्रधान जी हाथ जोड़कर अनुरोध करते हुये बोले कि मास्टर साहब आपको मेरे घर पर ही रहना है ताकि गुरूजी का सेवा करने का मौका मिलेगा,क्योंकि ऐसा माना जाता है कि गुरू की सेवा करने से परिवार तथा समाज के लोगों का सभ्यता,संस्कृति,नैतिकता,प्रेम, भाईचारा तथा सौहार्द का विकास होता है।यह सुनकर मास्टर साहब का दिल भर जाता है तथा ग्राम प्रधान के बंगले में ही मास्टर साहब रहने लगते हैं ।गाँव में रहते हुये मास्टर साहब ग्रामीण जीवन का सुखभोग करने लगे।
सुबह के समय मास्टर साहब गाँव की बहुत सारी प्राचीन परंपरा को देखते हैं,जिसमें से गाँव की महिलायें सुबह उठकर अपने घर के प्रत्येक दरवाजा के चौखट के पास गोबर से लिपती है उसके बाद अपने घर में झाड़ू लगाती है,फिर नहा धोकर चूल्हा को पोंछती है।उसके बाद माथे में घयला और हाथ में बाल्टी रस्सी लेकर पानी लाने जाती है।सुबह- सुबह बच्चों को जीवन का शिष्टाचार सिखाना,बड़े बुजुर्गों के साथ मिलने जुलने के लिये जीवन के उत्कृष्ट आदर्श को बताना, उसके बाद बच्चों को नाश्ता कराकर पढ़ने के लिये भेजना महिलाओं का मुख्य काम देखने को मिलता है।घर में गृहस्वामी की अनुपस्थिति में गाय बैल के कुट्टी पानी की भी व्यवस्था करना तथा दूध देने वाले पशु धन से दूध निकालने का काम भी करती हैं ।घर की बड़ी बहु होने के चलते घर के अन्य सदस्यों को भी प्यार भरी नजरों से देखना तथा मास्टर साहब के भोजन का भी ख्याल रखना ताकि मास्टर साहब इनके बच्चों को अपने बच्चों की तरह ही परवरिश करते रहे।मास्टर साहब जो कि अब इस परिवार तथा गाँव के लिये घरवैया हो चुके थे फिर भी गृह लक्ष्मी उनको अपना भैंसूर मानकर माथा में घूँघट रखकर ही सामाजिक लोकलाज तथा मर्यादा का निर्वहन करती थी।ग्रामीण परिवेश की महिलायें अपने साड़ी के पल्लू में घर की चाभी बाँधकर रखती थी तथा कभी-कभी रूपया भी बाँधकर रखती थी।गाँव की महिलायें इस बात का ख्याल रखती थी कि कोई भी बाहरी व्यक्ति सीधे उनके घर के अंदर प्रवेश न करे बल्कि उनके बैठकी के लिये अलग से कमरा होता था।फुर्सत के समय तथा पानी लाने के समय आसपास की महिलायें एक साथ बैठकर घर की समस्याओं तथा बच्चों को शिक्षा देने से संबंधित लंबी बातचीत करती थी।
किसी भी पारिवारिक या सामाजिक कार्यक्रम जैसे बच्चे की छठियारी,शादी-बियाह,पूजा- पाठ या अन्य किसी भी कार्यक्रम में सभी लोग शामिल होते थे तथा समाज में लोग मिल खुलकर जीवन का आनंद ऊठाते थे।मास्टर साहब को ग्रामीण परिवेश की संस्कृति तथा सांस्कृतिक विरासत बहुत अच्छी लगने लगी तथा अब इनको यह गाँव छोड़कर शहर में जाना भी अच्छा नहीं लगने लगा।गाँव के किसी भी घर में जब कोई भी तरह का पूजा- पाठ होता था गाँव के लोग बहुत श्रद्धा के साथ उनको बुलाते थे तथा गाँव के मिट्टी की सोंधी-सोंधी हवा की खुशबू अब मास्टर साहब को बहुत अच्छी लगने लगी।मास्टर साहब जी ने भी अपने जीवन की बहुमूल्य वस्तु शिक्षा को उस गाँव के बच्चों को समर्पित कर दिया तथा इनको ऐसा महसूस होने लगा कि मेरे जीवन का मूल लक्ष्य इस समाज के बच्चों का विकास करना है,जिसे मास्टर साहब जिन्दगी भर निभाते रहे।ग्रामीण परिवेश की परंपरागत सांस्कृतिक झलक ने मास्टर साहब को जिस प्रकार आकर्षित किया कि उन्होंने अपनी पूरी जिन्दगी उसी गाँव में गुजार दी जहाँ से उन्होंने अपने जीवन की सरकारी सेवा प्रारंभ की थी।उनका मानना था कि”ग्रामीण परिवेश के वक्षस्थल में ही भारत का प्राण वास करताहै” क्योंकि ग्रामीण परिवेश से ही लोगों को भोजन, वस्त्र और आवास की पूर्ति आसानी से हो सकती है।साथ ही हमारी परंपरागत संस्कृति ही हमारी पहचान है,जिसे जीवन में धारण करके ही जीवन का विकास संभव होगा”
आलेख साभार-श्री विमल कुमार “विनोद”प्रभारी प्रधानाध्यापक राज्य संपोषित उच्च विद्यालय पंजवारा,बांका(बिहार
परंपरागत संस्कृति की झलक- श्री विमल कुमार”विनोद”
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