इनकलाब- संजीव प्रियदर्शी

Sanjiv

ब्रिटिश हुकूमत का काल था।उस समय भारतीय समाज अनेक कुप्रथाओं से दूषित पड़ा था, जिसमें नरबलि का प्रचालन भी जोरों पर था।लोग अपने-अपने इष्टदेवों को प्रसन्न करने अथवा मन्नतें पूरी होने की अभिलाषा से छोटे जीवों से लेकर मानुष तक की बलि चढ़ाने से नहीं हिचकते। हालांकि फिरंगी इस प्रथा से प्रायः अनभिज्ञ ही थे, परन्तु देशी चाटुकार इसकी खूबियां गिनाकर अपनी श्रेष्ठ स्वामी भक्ति प्रदर्शित करने की फिराक में जुटे रहते।
तब एक नदी पर पुल निर्माण की योजना प्रस्तावित हुई थी। प्रारंभ होने के पूर्व खुशामदयों ने कार्य की निष्कंटकता तथा पुल की दृढ़ता के लिए एक श्रेष्ठ बलि देने की आरजू अपने मालिकों के समक्ष कर दिया ,वह भी आदमी के बच्चे का।
उस समय देश में घोर दरिद्रता और अभाव का दौर था।लोग पेट की ज्वाला शांत करने के लिए अपने जिगर के टुकड़े तक को बेचने से परहेज़ नहीं करते थे, परन्तु जिस स्थान पर पुल निर्माण होना था, वहां आसपास के लोग निहायत फटेहाल होकर भी स्वाभिमानी और उच्च मनोबल के थे। फिरंगियों की लाख कोशिशों के बावजूद एक भी जन अपने बच्चे का मोल लगाने को राजी नहीं हुआ। पर बिना बलि का अनुष्ठान भी तो पूर्ण नहीं हो सकता था। आखिर कोई उपाय न देख गोरों ने अपने सिपाहियों से एक बालक को कहीं से बलात् उठवा लाया। लड़का चौदह- पंद्रह वर्ष का कोई वनवासी था।
बधिक यह सोचकर मन ही मन कांप उठा कि आज उसे किसी निर्दोष मानुष छेले का वध करना पड़ेगा, जो उसके उद्योग के विपरित था। हां, पेट के लिए वह कभी-कभार पशुओं की बलि कर लेता। पर यहां तो उसे धोखे में रखकर नरबलि के लिए बुलवा लिया गया था। वह उत्सुकता वश बालक को एक नजर देख लेना चाहता था, जिसे कुंठा के नाम पर उसके हाथों आज कत्ल होना था।
जैसे ही उसकी दृष्टि लड़के पर पड़ी, उसके पैरों के नीचे की समूची जमीन मानो खिसक गई अथवा लगा कोई दहकता हुआ आग का गोला बिल्कुल सामने यकायक फटने से उसकी आंखें चुंधिया गईं हों।बालक कोई और नहीं,उसका ही लाडला रामू था। पर यहां प्रतिकार का मतलब था कुत्सित मौत। लड़का तो मारा जायेगा ही, वह भी नहीं बचेगा! अब उसने भी ठान लिया,मरेगा भी तो बहादुरी से।भला कौन यहां दुबारा मरने आता है? कुछ क्षण मन ही मन विचारा, फिर रास्ता भी ढूंढ लिया । बाप ने बेटे को और बेटे ने बाप को छुपती नजरों से देखा। फिर इशारों-इशारों में फैसला भी हो गया।
लड़के ने प्रस्ताव रखा। वह सहर्ष व स्वच्छंद होकर देवी को अपना बलि देना चाहेगा।भला फिरंगियों को इसमें क्या उज्र होता?उसे तो मात्र बलि से मतलब था। पर रामू के इस विलक्षण उद्यम से अंग्रेज विस्मित थे। होते भी क्यों नहीं, उसके चेहरे पर भय और रुदन की जगह हास और तेज झलक रहा था। भारत के वीर सपूतों का बलिदान के समय प्रायः ऐसा ही विरद रुप देखने को मिल जाता है।
पूजा-पाठ के उपरान्त अब लड़के की बलि देकर पुल की नींव रखी जानी थी। इस लोमहर्षक मंजर को देखने कई उच्च अंग्रेज अधिकारी तो थे ही, उनके पालतू चमचे- डफाली भी जुट गए थे। यहां देशभक्तों के कलेजे पर छुरियां चलती थीं जबकि दुश्मनों में उल्लास था।
रामू बलि के लिए अपना मस्तक करवट के पास नत कर दिया था।अब पिता को उसका मस्तक धड़ से विलग करना था। पिता अपनी चमचमाती कटार की तीक्ष्ण धार को सूक्ष्मता से परीक्षण के दरम्यान ही आसपास की स्थितियों का गंभीरता से अवलोकन कर लिया। सबकुछ सामान्य देख उसका मनोबल और दूना हो गया। वह कुछ क्षण आकाश की ओर देखकर अपने इष्ट को उचारा। फिर मुट्ठी में जमीन से माटी उठा अपने माथे पर मलकर और शेष लड़के के भाल पर भी तिलक स्वरुप घस दिया। हालांकि अंग्रेज एवं कर्मकांडियों को बधिक का यह आचरण असहज तो लगा, परन्तु उसकी रिवायत जान चुप रह गए। फिर शीघ्र मां कालिका का जयघोष करते हुए कटार को पूरी ताकत से सिर के ऊपर लहराया। और खचाक!खचाक!!खचाक!!! तीन फिरंगी धड़ें सिर से विलग पर कटे पंछियों की भांति जमीन पर इर्राती हुई लोटने लगीं।यह वाक्या इतनी द्रुत गति से घटित हुआ कि कईयों को भ्रम ही रहा कि लड़के की गर्दन कटी याकि फिरंगियों की। इस अप्रत्याशित प्रहार से कर्मकाण्ड स्थल पर जैसे कुहराम मच गया।बधिक चौथे फिरंगी को अपना शिकार बनाता कि दनदनाता हुआ कई कारतूसें उसके सीने को छलनी करते हुए पार कर गये। लेकिन बेटा बाप से कहां कम था। उसके भी रग-रग में किसी शेरनी का लहू उबलता था। वह इसी उम्र में अपने से दूगने बल के प्रतिद्वंद्वियों को अखाड़े में ऐसे धूल चटा देता जैसे कोई गजराज अजा-मृग संग परिहास वश अठखेलियां कर रहा हो। सिंह- व्याघ्र जिसके हमजोली हों, फिर भेड़ियों की यहां क्या विसात होती। उसने पिता के हाथ से फिसलती कटार को झटके से थामा और पलक झपकते ही पीठ दिखाकर भाग रहे पिट्ठुओं के सामने दौड़कर आ खड़ा हो गया। उसे देख गद्दारों की भय से घिग्घी बंध गई। वह काल की भांति एक-एक का नाश करने लग गया। उसके तीक्ष्ण वारों से किसी का सिर, किसी का हाथ तो किसी-किसी का पूरा पैर विच्छिन्न हो जाता। वह द्वंद्व करते हुए ऐसा प्रतीत होता था जैसे अकेला अभिमन्यु अंग्रेज़ रुपी कौरवों को मथ रहा हो। सागर में बिन पूनो ज्वार उठ आई थी। वैरी प्राणों की भीख मांगते जबकि माँ भारती उसपर आशीष बरसाती। वह जी भर खून की होली खेलता रहा। उसकी वीरता ने पुरखों के बोझिल मन को मानो हर्षोल्लास से भर दिया था।
आखिर राक्षसों से कब तक अकेला वह लोहा लेता। एक को घेरने सौ-सौ अंग्रेजी पलटने गोलियां बरसाते बढ़ रही थीं, फिर भी वीर के कदम पीछे नहीं हटते थे। अन्त में बहादुरी से लड़ते हुए गोलियां खाकर पिता की भांति वह भी शहीद हो गया।
इस घटना ने अंग्रेजी हुकूमत की चूलें हिलाकर रख थीं। तत्काल उस स्थान पर पुल निर्माण का कार्य स्थगित तो हुआ ही, कुछ दिनों बाद इस प्रथा को समाप्त करने का निर्णय भी सरकार को लेना पड़ा।
बाप और बेटा देश में व्याप्त पाखंड और अन्याय के खिलाफ शहीद तो हो गए, परन्तु आने वाली अपनी पीढ़ियों के लिए सुलगता हुआ इनकलाब भी छोड़ते चले गए।

संजीव प्रियदर्शी
फिलिप उच्च माध्यमिक विद्यालय
बरियारपुर, मुंगेर

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