15 अगस्त
“इतनी सी बात हवाओं को बताए रखना
रोशनी होगी, चरागों को जलाए रखना
लहू देकर की, जिसकी हिफाज़त हमने
ऐसे तिरंगे को, सदा आंखों में बसाए रखना।”
जी हां, ये है हमारे तिरंगे का मान-सम्मान, स्वाभिमान और अभिमान जिसे किसी खास दिन नहीं बल्कि प्रत्येक दिन इज्जत के साथ अपने सर आंखों पर रखना होता है। परंतु वह प्रथम दिन 15 अगस्त 1947 ही था जिस दिन 100-200 साल की लंबी लड़ाई के बाद हमें ब्रिटिश हुक्मकारों से आजादी मिली। यही वह दिन था जब लाल किले के लाहौरी गेट के उतंग ऊंचाई पर तिरंगे को स्वछंदता से फहराने का काम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू जी ने किया था। यही वो गौरवशाली दिन था जो इतिहास में भारत के स्वतंत्रता दिवस के रूप में दर्ज हुआ और था वह दिन जब सारे भारतवासी मदमस्त और मतंगों की तरह नाचते-गाते सड़कों पर घूमने लगे और गाने लगे “सारे जहां से अच्छा हिंदुस्ता हमारा, हम बुलबुलें है इसकी यह गुलसिता हमारा।”
हम भारतीय कैसे भूल सकते है जब ईस्ट इंडिया कंपनी के नाम से कुछ अंग्रेज भारत में व्यवसाय करने आए और देखते ही देखते हमपर, हमारे संस्कृति से होते हुए मानसिक, शैक्षणिक एवम व्यवसायिक मापदंडों को तहस-नहस कर दिया। सच कहूं तो विशेष कर मानसिक एवम सांस्कृतिक गुलाम बना दिया जो कुछ हद तक आज भी देखा जाता है। अंग्रेजो को यह पता था की हमारी सांस्कृतिक और शैक्षणिक जड़ें इतनी गहरी है कि उसे तोड़ना या उससे विलगित करना बहुत मुश्किल है और उनके बिना हमें गुलाम नहीं बनाया जा सकता है।
इसी प्रकरण में उन्होंने हम भारत वासियों को निम्न स्तरीय गुणवत्ता का बताना शुरू कर दिया और हमारी भाषा, संस्कृति, त्योहार, शिक्षा सब चीजों को तहस-नहस कर साल दर साल बीतता गया और हम सभी को मानसिक तौर पर विकलांग बनाते चले गए। फिर स्थिति यह आई कि उनका ही सबकुछ अच्छा लगने लगा और अंग्रेज़ों को हम भारतीयों को गुलाम बनाना आसान हो गया।
ये प्रकरण लंबे समय तक चलता रहा और समय-समय पर हमारे ज्ञानी विद्वान एवम देशभक्तों ने प्रतिकार भी किए पर वह सफल नहीं हो पाए फिर आया 1857 का वह विद्रोह जो स्वतंता-संग्राम का प्रथम संग्राम कहलाता है। हालांकि इसे लेकर विद्वानों में मतभेद है परंतु हमें देशभक्ति की चिंता थी न कि विद्वानों के मतभेद की। ये लड़ाई आगे बढ़ते गई और नाम सामने आता गया। भगत सिंह, सरदार पटेल, तिलक, चंद्रशेखर आजाद, लाल, मुंडा, कुंवर सिंह, गांधी, सुभाष चंद्र बोस और साथ-साथ हर एक भारतवासी जिन्हें स्वतंत्रता से प्यार था, मोहब्बत थी खुली हवा से, नफरत थी जंजीरों से और हाथ में चिराग लेते गाते थे।
“सर कटा सकते हैं लेकिन सर झुका सकते नहीं।”
ये वादा उन हिंदुस्तानियों का था जिन्होंने अपने विदेशी कपड़े तक उतार दिए। स्वदेशी पहने, असहयोग किया, चौड़ी-चौड़ा हुआ, जालियां वाला बाग हुआ, दांडी मार्च हुआ परंतु हिले नहीं, लड़ते रहे और आखिरकार वह दिन आया जब सब झूमने लगे, गाने लगे।
“सर सरफरोसी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोड़ कितना बाजुए कातिल में है।”
फड़क गई नसें, चनक सी गई बाजुएं, जबड़े भी हंसी और खुशी बांध नहीं पा रही थी और वह दिन 15 अगस्त 1947 था।
आंचल शरण
बायसी पूर्णियाॅं
बहुत ही सुंदर आलेख है।आजादी के सभी बिंदुओ को स्पर्श किया हुआ है। शुभकामनाएं।
शाबाश! आँचल जी, बहुत बढ़िया!