अकेलापन और एकांत- गिरीन्द्र मोहन झा

अकेलापन बहिर्मुखी और एकांत अन्तर्मुखी होता है। धारावाहिक महाभारत में पितामह गंगापुत्र भीष्म का एक संवाद है, “धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में प्रत्येक व्यक्ति अकेला होता है। धर्म व्यक्तिगत होता है। धर्म का संबंध सेना से नहीं, सेनानी से होता है, व्यक्ति से होता है।” यहां धर्मक्षेत्र का अर्थ अपने धर्म के क्षेत्र में, अपने कर्त्तव्य के पथ पर होता है, जैसा कि राजर्षि युद्धिष्ठिर ने यक्ष से कहा था, तप: स्वधर्मवर्तित्वं(अपने धर्म, अपने आदर्श में स्थिर रहना ही तपस्या है।) कुरु शब्द संस्कृत भाषा के ‘कृ’ धातु से बना है। कुरु का अर्थ है ‘करो’ । कुरुक्षेत्र का शाब्दिक अर्थ है, “कर्म का मैदान।” कहने का तात्पर्य, अपने धर्म, अपने कर्त्तव्य, अपने कर्म के पथ पर हर व्यक्ति अकेला होता है।  वास्तव में कोई व्यक्ति अकेला नहीं है, उसके साथ उसके पूर्वकृत कर्म(प्रारब्ध और संचित कर्म), क्रियमाण कर्म (वर्तमान कर्म), अनुवांशिकी गुण(कुल-आचार या कुल-परम्परा), शरीर, बुद्धि, पैसा, विद्या, विचार और विवेक होता है। आत्मा रूप से प्रभु हर किसी के साथ रहते हैं और पग-पग पर मार्गदर्शन करते हैं ‌। सत्संग और विवेक उनकी आंखें होती हैं। उसे अपने आराध्य पर पूर्ण विश्वास होता है। कहते हैं, “ये न सोचें कि मैं अकेला हूं, अपितु ये सोचे कि मैं अकेले ही काफी हूं।” स्वामी विवेकानंद के शब्दों में, “ईश्वर में आस्था रखते हुए कर्म करते चलो।” मोबाइल, संगणक(कम्प्यूटर) आदि के युग में कोई अकेला रह ही नहीं सकता। किसी भी महान कार्य की शुरुआत अकेले ही करनी पड़ती है। कारवां पीछे साथ लगता है। जैसा कि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा है, “एकला चलो रे ।”

एकांत अन्तर्मुखी शब्द है। पंचवटी में मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा है, “कोई पास न रहने पर भी जन-मन नहीं रहता, आप आपकी है सुनता, आप आप से है कहता ।” कहते हैं, “वार्तालाप से बुद्धि विकसित होती है, किन्तु प्रतिभा की पाठशाला तो एकांत ही है।” थामस अल्बा एडीसन ने कहा है, “सबसे अच्छा चिंतन एकांत में किया गया है और सबसे बुरे काम उथल-पुथल में हुआ है।”

गिरीन्द्र मोहन झा

+२ भागीरथ उच्च विद्यालय, चैनपुर-पड़री, सहरसा

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