सिक्खों के दसवें गुरु गोविन्द सिंह-सुरेश कुमार गौरव

Suresh

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सिक्खों के दसवें गुरु गोविन्द सिंह

          सिक्खों के दसवें व अंतिम गुरु श्री गुरु गोविन्द सिंह महाराज जी का जन्म २२ दिसंबर १६६६ को माना जाता है। इनकी माता का नाम गुजरी बाई और पिता गुरु तेग बहादुर जी थे जो सिक्खों के नवें गुरु भी थे।

इनकी क्रमश: तीन पत्नियां थीं माता जीतो जी, माता सुंदरी जी, माता साहिब देवी थीं।

इनके बेटों के नाम क्रमश: जुझार सिंह, जोरावर सिंह, फतेह सिंह और अजित सिंह थे।

कहा जाता है कि उनके पिता की मृत्यु के बाद उन्हें ११ नवम्बर सन १६७५ को सिख धर्म का दसवां गुरु बनाया गया था। सन १६९९ में बैसाखी के दिन उन्होंने खालसा पंथ की स्थापना की जो कि सिक्खों के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटना मानी जाती है।

श्री गुरु गोविन्द सिंह महाराज जी एक महान वीर योद्धा, कवि, देशभक्त और अध्यात्मिक गुरु थे।

गुरु ग्रंथ साहिब जी सिखों कि पवित्र धर्म ग्रन्थ माना जाता है। ये ग्रन्थ गुरु गोबिंद सिंह द्वारा ही वाणी से पूरा किया गया था और उन्हें गुरु रूप में परिणत व सुशोभित भी किया गया।

“विचित्र नाटक” श्री गुरु गोविन्द की आत्मकथा माना जाता है। यह नाटक के दसम् ग्रंथ का एक हिस्सा है। उनके द्वारा किये गए कार्यों का एक महत्त्वपूर्ण संकलन है। उन्होंने मुगलों व उनके साथियों के साथ चौदह युद्ध लड़े।

भारत के इतिहास में देशधर्म के लिए उन्होंने अपने पूरे पुत्र सहित परिवार का बलिदान भी किया जिसके कारण उन्हें “सर्वदानी” भी कहा जाता है। उनके कई उपनाम है, जैसे- कल्गीधर, दशमेशजी महाराज, बाजांवाले आदि।

गुरु गोविन्द सिंह जी एक महान लेखक, चिंतक तथा हिन्दी, संस्कृत सहित कई भाषाओं के ज्ञाता भी थे।

उन्होनें कई ग्रंथों की रचना की। ऐसा कहा जाता है कि उनके दरबार में ५२ कवियों तथा प्रबुद्ध लेखकों की उपस्थिति रहती थी जिस कारण उन्हें “संत सिपाही” के नाम से भी जाना जाता है।

उनके अंदर करुणा, दया, मानव प्रेम भी विद्यमान थे इसीलिए उन्होंने हमेशा देश व समाज में प्रेम, एकता, भाईचारे का संदेश दिया। उनका कहना था कि मनुष्य को किसी से न तो डरना चाहिए और न ही डराना चाहिए ।

कबीर दास की ही तरह उनका मानना था कि यदि मुझे कोई भी कुछ भी हानि पहुंचाने के बारे में सोचता है तो मैं अपनी मधुरता, सहनशीलता, सौम्यता से उसे अपना बना लेने की कोशिश करता हूं।

उनके कथनानुसार धर्म का मार्ग ही सर्वोपरि है और सत्य का मार्ग कहलाता है। सत्य की हमेशा ही जीत होती है। यानी “सत्यमेव जयते” की भावना उनके अंदर बसी हुई थी।

बचपन में उन्हें गोविन्द राय कहा जाता था। गुरु गोविंद सिंह जी का जन्म उनके पिता गुरु तेग बहादुर और माता गुजरी के घर पटना में २२ दिसम्बर १६६६ को हुआ था । गुरुद्वारा झाऊगंज से कुछ ही दूरी पर गंगा के कंगन घाट पर उनका बचपन भी गुजरा था।

उनके पिता नौवें सिख गुरु थे तथा उनके बाद ही गुरु गोबिंद जी को दसवें गुरु माना गया था। जब वह जन्मे थे तब उनके पिता असम में धर्म उपदेश के लिए गए हुए थे।

पटना में जिस घर में उनका जन्म हुआ था उस जगह अब तखत श्री हरिमंदिर साहिब पटना कहा जाता है। इनके नाम पर पटना साहिब रेलवे स्टेशन भी है जो कि पटना जंक्शन से दस किलोमीटर पूरब में पड़ता है। गुरु गोबिंद सिंह जी के शुरुआती जीवन के चार साल पटना सिटी में ही बीते थे।

१६७० में गुरु गोविन्द सिंह का परिवार पंजाब में वापस आकर बस गया। मार्च १६७२ में उनका परिवार फिर हिमालय के शिवालिक पहाड़ी स्थित “चक्क नानकी” नामक जगह पर आ गया जो वर्तमान में “आनंदपुर साहिब” कहलाता है और गुरु गोविंद सिंह जी की शिक्षा दीक्षा यहीं पर शुरु हुई थी।

गोविन्द जी ने फारसी भाषा का ज्ञान प्राप्त किया। फिर संस्कृत की शिक्षा प्राप्त की और एक योद्धा बनने के लिए अस्त्र-शस्त्र का भी पूरा ज्ञान प्राप्त किया।

आनंदपुर साहिब में आध्यात्मिक शिक्षा के अलावे लोगों को नैतिकता, निडरता और आध्यात्मिक जागृति का ज्ञान भी दिया करते थे ताकि लोगों में देश प्रेम, मानवता और वीरता की भावना पनप सके।

श्री गुरु गोविंद सिंह जी शांति, क्षमा, सहनशीलता के पर्याय माने जाते हैं। उनके इस आचरण के चलते ही सिख में समता, समानता और समरसता का भरपूर ज्ञान पनपा। इस कारण लोग रंग-भेद, जातिगत भेद-भाव आदि में उस समय विश्वास नहीं करते थे।

इनके पिता श्री गुरु तेग बहादुर का सिर क्यों कलम करवाया गया था? इसका भी इतिहास है। कहा जाता है जब कश्मीरी पंडितों का जबरन धर्म परिवर्तन करके मुसलमान बनाया जाने लगा था उसके खिलाफ शिकायत को लेकर और खुद इस्लाम को स्वीकार नहीं किया था।

इसी वजह से ११ नवंबर १६७५ को मुगल बादशाह औरंगजेब ने दिल्ली में चांदनी चौक में सभी के सामने गुरु तेग बहादुर यानी गुरु गोविंद सिंह जी के पिता जी का सर कटवा दिया था और फिर इनकी रिक्तता को भरने के लिए २९ मार्च १६७६ को गोविंद सिंह सिखों के दसवें गुरु घोषित किए गए।

दसवें गुरु बनने की जिम्मेदारियों के बावजूद भी उन्होंने अपने आगे की शिक्षा जारी रखी। शिक्षा ज्ञान के अंतर्गत लिखना-पढधना, घुड़सवारी, धनुष आदि चलाना उन्होंने सीखा।

सन १६८४ में उन्होंने “चंडी दी वार” की रचना की। १६८५ तक गुरु गोबिंद सिंह जी वर्तमान यमुना नदी के किनारे “पाओंटा” नामक स्थान पर भी रहे।

२१ जून १६७७ को उनका विवाह माता जीतो के साथ हुआ था जो कि आनंदपुर साहिब से करीब १० किलोमीटर की दूरी पर बसंतगढ़ में आज भी स्थित है।

उनके तीन पुत्र हुए पहले जुझार सिंह दूसरे जोरावर सिंह और तीसरे फतेह सिंह। ४ अप्रैल १६८४ को उनका दूसरा विवाह माता सुंदरी से हुआ था जिनसे उन्हें एक पुत्र भी हुआ जिनका नाम अजित सिंह था। उनके तीसरे विवाह का भी उल्लेख मिलता है। १५ अप्रैल १७०० को ३४ वर्ष की आयु में उन्होंने माता साहिब देवन से तीसरा विवाह किया था।

गुरु गोविन्द सिंह का खानदान या कहें पीढ़ी आगे नहीं चल सकी। कारण यह था कि मुगल शासक औरंगजेब के कहने पर उनकी अधीनता स्वीकार नहीं करना और देश धर्म पर अडिग रहने की वजह से मुगल शासक ने एक-एक कर उनके सभी पुत्रों को दीवार में चुनवा दिया। सिर कलम करवा दिया और गंभीर यातनाएं देकर उनके अलावे पूरे परिवार को मरवा दिया।

ऐसे बलिदानी युगपुरुष का बलिदान हम भारतवासी कभी भूल नहीं पाएंगे। उनके बताए रास्ते पर चलना ही आज सिख धर्म की पहचान बन गई है। इनको पशु और पक्षियों से भी खासा लगाव था। उनके हाथ में बाज और कबूतर की तस्वीरें उनका पक्षी प्रेम को भी प्रदर्शित करता है।

पंच प्यारे खालसा पंथ आज भी दिन-रात मानव सेवा में लगा हुआ है। इनके सिख धर्म द्वारा हर गुरुद्वारों में बिना भेद धर्म-जाति सभी के लिए चौबीसों घंटे लंगर यानी खाने की व्यवस्था की जाती है जो कि अनवरत चल भी रही है। नमन इस युगपुरुष को। इनकी मृत्यु ७ अक्टूबर १७०८ मानी जाती है।

✍️सुरेश कुमार गौरव

स्नातक कला शिक्षक
उ. मा. वि. रसरपुर

फतुहा पटना (बिहार)

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