आदर्श-अमरनाथ त्रिवेदी

Amarnath Trivedi

कहते हैं समय की मार एक न एक दिन सब पर अवश्य पड़ती है; चाहे कोई कितना भी बलशाली और विद्वान क्यों न हो, परन्तु अज्ञानी मनुष्य समय को रो-धोकर गुजारता है ,वही ज्ञानी व स्वाभिमानी जन इसका प्रतिकार हँसते-खेलते सहजता के साथ कर लेते हैं। कभी-कभी तो नजदीक के लोगों को भी इसका आभास तक नहीं हो पाता। जहाँ अज्ञानी अनावश्यक उलझनें पैदा कर दूसरे को भी उलझा लेते हैं वहीं ज्ञानी समय की नजाकत को समझते हुए संजीदगी से अपने श्रेयमार्ग का अनुसरण करते सदैव आगे बढ़ते हैं।

शायद यही बातें अच्छेलाल के साथ भी थीं। कम पढ़ा-लिखा इंसान होने के बावजूद वह स्वाभिमानी पुरुष था तथा जीवन की तारतम्यता का पारखी भी। उसे अपने कर्त्तव्यों का सम्यक बोध था। कोई कभी भला-बुरा भी अज्ञानता के वशीभूत होकर कहता तब भी वह कभी भी आपे से बाहर नहीं होता था; जिस कारण शत्रु भी उसके इस सौम्यता और सदव्यवहार के कायल थे। त्याग उसके हथियार थे तो विनम्रता उसके जीवन की कसौटी। कदाचित कोई उलझन आ भी जाता तब घर के सभी लोगों के साथ मिल- बैठकर समाधान निकाल लेता। परन्तु कुछ ऐसे सज्जन भी उस गाँव में जरूर थे, जिनकी नजरों में अच्छेलाल एक दब्बू किस्म का इंसान था।

अच्छेलाल सौम्यता की मानो प्रतिमूर्त्ति था। वह अपने जीवन में कभी गाली-गलौज की भाषा जिह्वा पर आने न दिया था। उसका स्पष्ट मानना था कि मैं क्या हूँ – यह केवल मुझे पता है, अन्य लोग तो अपनी समझ से ही बातें करेंगे ना ।

उसमें कर्त्तव्यपरायणता भी कूट-कूटकर भरी थी। शायद यही कारण था कि नौकरी न रहने के बावजूद उसके हाथ कभी खाली न रहे। जरूरतमंदों और गरीबों की सहायता करना वह अपना नैतिक फर्ज समझता था। जो उस गाँव या आसपास के गाँव के अच्छे लोग थे वे उसकी शालीनता व कर्त्तव्यपरायणता के दीवाने थे। उन सबका स्पष्ट अभिमत था कि जीवन में सिद्धान्तों पर चलने वाले कितने लोग होते हैं? अधिकांश लोग तो लक्ष्मी के लालच में कुछ भी कर गुजरने को तैयार रहते हैं। समय अपनी रफ्तार में भला कहाँ रूकती है, जो जागता है उसे कर्मानुसार फलों की प्राप्ति होती है और जो सोता है ; उसका भाग्य भी रूठकर सो जाता है।

अच्छेलाल खेती के साथ पशुपालन भी तल्लीनता के साथ करता था। उसे अच्छी नस्ल की दुधारू गाय रखने का बेहद शौक था। खेती से समय निकालकर वह गाय की सेवा अवश्य करता। उसकी पत्नी हीरा भी इस पुनीत कार्य में अपने पति का भरपूर साथ देती।

उसके दो पुत्र थे। बड़े का नाम रत्नेश और छोटे का नाम शुभेश था। दोनों लड़के पिता के नक्शेकदम थे। अनुशासित दिनचर्या और परिश्रमी जीवन मानो सोने में सुगंध की तरह उन दोनों भाइयों में रचे-बसे थे। आज तक कभी कोई उन दोनों को आपस में तेज आवाज में बातें करते न सुना और न देखा ही था। लड़ने-झगड़ने की बात तो कोई सोच भी न सकता था। बड़े भाई की इज्जत छोटा भाई पिता समान करता और छोटे भाई को बड़ा भाई स्नेह से सिक्त करता। इसका कुछ असर आस-पड़ोस के बच्चों पर भी पड़ा था। सभी इन दो भाइयों की अनुशासित दिनचर्या की प्रशंसा करते अघाते न थे तथा अपने घर के बच्चों को भी उन दो भाइयों से प्रेरणा लेने की सीख देते। कुल मिलाकर यूँ कहा जाए कि छोटे-से कारोबार में अच्छेलाल का परिवार चैन की जिन्दगी जी रहा था , जहाँ आदर्श और संयमित आचरण उस परिवार की खास पहचान बन चुकी थी। कर्त्तव्यनिष्ठा और ईमानदारी इस परिवार के रग-रग में समाया हुआ था। जहाँ पास-पड़ोस की दिनचर्या में व्यतिक्रम देखने को मिलते वहीं इस परिवार के लोगों की दिनचर्या सधी हुई होती।

जिन्दगी की सुरभि मनुष्य के व्यवहार, संजीदगी व सदाशयता में प्रतिबिम्बित होती है। वास्तव में वैसे लोग इस धरा पर धन्य होते हैं जो अपनी अमिट छाप से दूसरों पर प्रभाव डाले बिना नहीं रहते तथा उनकी साधना व लगनशीलता यथोचित फल प्राप्त किए बगैर नहीं रहती।

दोनों भाई पढ़ने-लिखने में औसत दर्जे के विद्यार्थी थे परन्तु बुद्धिमान उससे कहीं अधिक। रत्नेश ग्रेजुएट पास करने के पश्चात एक प्राइवेट कम्पनी में नौकरी पकड़ ली जबकि छोटा भाई शुभेश अभी इंटर में पढ़ रहा था। रत्नेश ने कम दिनों में ही इस प्रकार निष्ठा का बीजारोपण किया कि सभी कार्यरत कर्मी उसके क्रियाकलाप से अभिभूत हो उठे थे। कम्पनी के मालिक भी उसकी कार्यशैली और लगनशीलता से अत्यन्त प्रभावित हुए तथा उसके कार्यों की भूरि-भूरि प्रशंसा की। कुछ महीने बाद ही उसे प्रोन्नत कर उसके वेतन में डेढ़ गुनी वृद्धि कर दी थी।

जहाँ निष्ठा की, कार्यक्षमता की इज्जत की जाती है-प्रशंसा की जाती है वहाँ कार्यदक्षता में वृद्धि स्वतः हो जाती है, परन्तु जहाँ केवल शासन की अकड़ चलती है वहाँ की प्रगति कुंद पड़ जाती है। निष्ठावान लोग किनारे लगा दिए जाते हैं तथा चाटुकार लोग अपना मतलब निकालने में व्यस्त हो जाते हैं। आए दिन रत्नेश की दिनचर्या और कार्यशैली में उत्तरोत्तर पैनापन आता गया। वह प्रतिबद्ध सिपाही की भाँति कम्पनी के उन्नयन में सदैव लगा रहता। जिस कारण कम्पनी मालिक का वह सबसे अधिक विश्वसनीय कर्मचारी बन गया था। जब कम्पनी मैनेजर छुट्टी पर होते तब कम्पनी मालिक देखरेख की पूर्ण जिम्मेवारी रत्नेश के कंधों पर डाल देते । वह भी उस जिम्मेवारी का निर्वहन पूरी निष्ठा से करता। कम्पनी की बेहतरी के लिए सभी कर्मियों का मार्गदर्शन करता। क्रय-विक्रय के सारे हिसाबों की जानकारी रत्नेश के ही जिम्मे होती। व्यवहार और वाणी से अपने सभी कर्मियों पर खासा प्रभाव छोड़ रखा था। सभी कर्मियों की गतिविधियों की जानकारी रत्नेश को समय-समय पर गुप्त तरीके से मालिक को देनी पड़ती थी। जिस कारण सभी कर्मी उससे कहीं न कहीं भय भी खाते थे। उसने अपनी

कर्मठता से कम्पनी में ऐसी धाक जमा ली थी कि सभी कर्मी उसके सामने बौने साबित हो रहे थे।

रत्नेश शादी के योग्य हो चुका था । शादी के लिए रिश्ते भी आने लगे थे। उसकी माँ हीरा का स्वास्थ्य इन दिनों कुछ अच्छा नहीं चल रहा था। इसलिए शादी करना आवश्यक था। अच्छेलाल ने एक अच्छी लड़की देखकर शादी की तिथि तय कर दी। नियत तिथि पर रत्नेश की शादी बड़े धूमधाम से लक्ष्मी के साथ सम्पन्न हुई। इस सुअवसर पर अच्छेलाल ने खूब रुपये खर्च किए थे।

लक्ष्मी जब अपने नये घर में आई तब सास ने उसे अपनी बेटी की तरह स्नेह का प्रतिदान करने लगी। लक्ष्मी का स्वरूप नाम के अनुसार ही भव्य था। बड़ी-बड़ी आँखें, खड़ी नाक, भरे हुए कपोल, गुलाबी होंठ और ऊपर से गोरा रंग उसकी खूबसूरती के पैमाने थे। सास का प्यार पाकर लक्ष्मी फूली न समाई। ससुराल में आकर उसे अपने माँ की कमी कभी न खली। सास उसके लिए वह सब उपाय करती जिससे लक्ष्मी खुश रह सके। लक्ष्मी को कुछ ही दिनों में परिवार से इतना स्नेह और सम्मान मिला कि वह बिल्कुल ससुराल की ही होकर रह गई। उसे इस बात से बड़ी खुशी हुई थी कि ससुराल के लोगों ने जो मायके से मिला उसे सराहा और जो न मिला उसका नाम तक न लिया, यह उसके लिए बहुत बड़ी बात थी।

मात्र शादी के एक महीना बाद ही उसने अपने को इस प्रकार ढाल लिया कि लगता ही न था कि वह नई नवेली दुल्हन हो। सास लाख मना करती कि अभी यह काम तुम्हारे लायक नहीं फिर भी अपनी सास के कार्यों में हाथ बँटाना तथा उसकी खातिरदारी करना अपना नैतिक फर्ज समझती थी।

परिवार में रोज सबसे पहले लक्ष्मी जगती थी। एक माह तक तो वह सास के क्रियाकलापों को गौर से देखती रही जब उसे यह भान हो गया कि वह सास के सारे घरेलू कार्य करने में सक्षम है तब वह धीरे-धीरे सभी घरेलू कार्यों में दिलचस्पी लेने लगी। हीरा को अब लक्ष्मी के रूप में एक बहुत बड़ा सम्बल मिल चुका था। वह अपनी पतोहू को स्नेहवश बेटा कहकर पुकारती । यह सुखद संयोग ही रहा कि वह पहले से अधिक स्वस्थ रहने लगी थी। जब भी कोई महिला आँगन में लक्ष्मी को देखने आती; हीरा अपनी पतोहू के गुणों की चर्चा किए बिना न रहती । वास्तव में जब एक दूसरे के प्रति सद्भाव, सम्मान और स्नेह हो तब मन के सारे मैल स्वतः ही धुल जाते हैं, फिर सोच भी अलग कहाँ रह जाती है? सचमुच यही स्थिति हीरा और लक्ष्मी के मध्य विनिर्मित हुई थी ; जहाँ सास – पतोहू द्वन्द्व के सारे पहलू स्वतः ही ध्वस्त हो चुके थे। एक दूसरे के सद्भाव ने सास और पतोहू के बीच की खाई को सहजता के साथ ऐसे पाटा कि कहीं रत्तीभर भी शिकवा-शिकायत की गुंजाइश न बची थी। शादी के हुए कई वर्ष बीत चुके थे पर लक्ष्मी अब भी संतान सुख से वंचित थी। ऐसा न था कि उसकी उम्र अधिक हो गई थी, दरअसल उसकी शादी अठारह वर्ष में ही हो गई थी परन्तु हीरा को पोता-पोती की चाहत अधिक सताने लगी थी। वह लक्ष्मी से तो कुछ भी न कह पाती परन्तु अपने पति अच्छेलाल से इस पर चर्चा अवश्य करती।

रत्नेश का छोटा भाई शुभेश भी अब शादी के योग्य हो चुका था। उसे सरकारी नौकरी मिल चुकी थी। कई लड़कीवालों ने रिश्ते के लिए अच्छेलाल के नाक में दम कर रखा था। दर्जनों नये-नये प्रस्ताव लेकर लड़कीवाले आए परन्तु अच्छेलाल लड़की में गुण, स्वभाव को अधिक तरजीह देता। वह अन्य चीजों का भूखा कदापि न था। उसने कई लड़कियों की स्पर्धा में हेमा को अपने पतोहू लायक समझा। हेमा जितनी देखने में अच्छी थी उसी अनुरुप स्वभाव से भी कोमल और प्रियवादिनी थी। ग्रेजुएट यह सुन्दरी अब शुभेश की अर्द्धांगिनी बनने जा रही थी। हेमा के पिता निहायत किसान था किन्तु अपनी बेटी में सभी अच्छे गुण भर रखे थे। हेमा की माँ किशोरी पतिपरायणा थी इसका भीअच्छा खासा प्रभाव उस पर पड़ा था।

शुभ मुहूर्त्त में शुभेश की शादी हेमा के साथ सम्पन्न हुई। अच्छेलाल अपने छोटे बेटे की शादी में भी पर्याप्त रुपये खर्च किए। सभी रिश्तेदारों ने जी खोलकर अच्छेलाल की प्रशंसा की थी। हीरा ने
हेमा के साथ भी वही स्नेह की वर्षा की जिस प्रकार वह बड़ी पतोहू लक्ष्मी के साथ कर रही थी। इधर लक्ष्मी भी अपनी छोटी बहन मानकर हेमा की जरूरतों को पूरा करने में रत्तीभर भी पीछे न हटती थी। उसके स्नेह के प्रतिदान का असर अब हेमा पर भी बढ़ चढ़कर बोलने लगा था। वह भी अब लक्ष्मी के घरेलू कार्यों में सहायक बनती। उसके पाँव ससुराल में पड़ते ही परिवार का अभ्युदय और तेज गति से होने लगा था। यह सुखद संयोग ही था कि हेमा के आने के पश्चात ही लक्ष्मी माँ बनने जा रही थी। परिवार में दोहरी खुशी मिलने से सभी के चेहरे खिले हुए थे।

हीरा के स्नेह के प्रतिदान का तरीका इतना निराला था कि छोटे को उसका प्रेम मानो अथाह सागर जैसे ही प्रतीत होता था। हीरा ने दोनों पतोहू को स्नेह का ऐसा मीठा घूँट पिलाया कि वह आजीवन दोनों के जीवन में अविछिन्न रूप से बना रहा। कहा जाता है कि सरस व्यक्ति हमेशा सरस ही बना रहता है चाहे परिस्थिति कैसी भी क्यों न हो, वही दूसरी ओर साक्षर यदि अपनी मर्यादा त्याग दे ; तब वह साक्षात राक्षस के समान आचरण करने लगता है।

हेमा अपने घर से बहुत कुछ तो लेकर न आई थी परन्तु उसके संस्कार व उसके व्यवहार ने परिवार के सभी सदस्यों के दिलों पर आधिपत्य जमा लिया था। सचमुच में किसी लड़की के ससुराल में उसकी असली सम्पत्ति का प्रकटीकरण इन्हीं शुभ्र गुणों से होते हैं; जहाँ समय के झोंके के साथ सामान टूट-फूटकर विनष्ट हो जाते हैं, वहीं लड़की के गुण, स्वभाव और उसकी आदतें ताउम्र बने रहते हैं जो किसी भी परिवार की अमूल्य निधि होती है। वास्तव में वैसे भी हेमा शुभ्र गुणों की खान थी। सकारात्मकता उसके रग-रग में समाया हुआ था। जब उसे पता चला कि जेठानी गर्भवती है तभी से वह लक्ष्मी का खूब ख्याल रखने लगी थी। लक्ष्मी भी अपनी देवरानी हेमा पर स्नेह उड़ेलने में कभी कोई कंजूसी न की। दोनों जब आँगन में होती तब एक अलग आभा से पूरा आँगन दमक उठता। जो भी महिलायें उन दोनों को देखने आतीं ; भरपूर आशीर्वाद दिए बिना न जाती थीं तथा देखनेवाली अधिकांश महिलायें दरवाजे पर जाकर अच्छेलाल को शाबाशी देना भी न भूलती।

परिवार में नये मेहमान का इंतजार शिद्दत के साथ हो रहा था। जब लक्ष्मी को प्रसव पीड़ा की अनुभूति हुई तब हीरा पतोहू को लेकर अस्पताल पहुँची । कुछ दवा चलने के उपरान्त लक्ष्मी ने एक सुन्दर स्वस्थ बालक को जन्म दिया। दो दिन बाद जच्चा-बच्चा के ठीक रहने के कारण लक्ष्मी को छुट्टी दे दी गई। हीरा अपने चिर प्रतीक्षित पोता को गोद में लिए खुशी मन से लक्ष्मी के साथ घर लौटी। घर मे उत्सव-सा माहौल था। हो भी क्यों न, घर को एक कुल दीपक मिल गया था गाँववाले भी इस उत्सव के साक्षी बने थे । तरह -तरह के पकवानों से माहौल खुशनुमा हो चला था जो सज्जन इस शुभ घड़ी में आते उन्हें बड़े प्रेम से अच्छेलाल आवभगत करता। इस शुभ अवसर पर रत्नेश के कम्पनी मालिक भी शरीक हुए थे। सभी ने
घर के नन्हें कुलदीपक को भरपूर आशीर्वाद दिया था। समय को कोई रोक नहीं सकता। यह अबाधगति से वर्तमान को भूत की ओर ढकेलता सदैव आगे बढ़ता चला जाता है । इस पर किसी का नियंत्रण नहीं – कोई जोर- जबरदस्ती नहीं। सब उसके ही अधीन जन्म से मृत्यु तक की यात्रा करते हैं।

बमुश्किल से इस खुशी के छह महीने ही बीते होंगे कि हीरा का स्वास्थ्य तेजी से गिरने लगा था। कई डॉक्टरों से इलाज कराया गया फिर भी सुधार के कोई लक्षण दृष्टिगत न हो रहे थे। शरीर बहुत दुबला गया था। भोजन से अरूचि हो गई थी। यह देख परिवार के सभी सदस्य चिंतित रहने लगे थे। लक्ष्मी और हेमा अपनी सास हीरा की खूब सेवा करती। हीरा भी अपने दोनों पतोहू को जी खोलकर आशीर्वाद देती। उन दोनों के सिर पर हाथ फेरती हुई कहती – तुम दोनों मेल से रहना, इसमें बहुत बल है। मुझे लगता है कि मेरा समय अब यहाँ समाप्त हो रहा है । जिस दिन हीरा को लगा कि मैं न बचूँगी। घर के सभी सदस्यों को अपने बिछावन के पास बुलाकर दोनों बेटे की ओर मुखातिब होते हुए बोली बेटा तुम लोग आपस में प्रेम से रहना। जब अच्छेलाल सामने आया तब दोनों हाथ जोड़कर पति को प्रणाम किया तत्पश्चात उस कर्मयोगिनी ने अपने पति अच्छेलाल की ओर हाथ बढ़ाया जिसे उसने थाम लिया। हाथ थामते ही हीरा ने पति के सामने ही अपनी आँखे सदा के लिए मूँद ली ।

इस घटना से पूरा परिवार शोक में डूब गया। परिवार का दिल कहे जानेवाली हीरा के जाने से लक्ष्मी और हेमा अनाथ – सी हो गयी थी । दोनों बार-बार मूर्च्छित हो रही थी। अच्छेलाल चेहरा पर गमछा रख अपनी आँसुओं को लगातार पौछ रहा था। उसके जीवन की सारी तरंगें अब निस्पन्द हो चुकी थीं। हीरा जब शादी के पश्चात पहली बार ससुराल में आई थी तब परिवार की आर्थिक हालत अच्छी न थी। परिवार पर कर्ज का बोझ था। परन्तु हीरा की सूझबूझ व कर्त्तव्यपरायणता ने परिवार की तस्वीर ही बदल डाली । अच्छेलाल ने हीरा के साथ मिलकर परिवार को एक नया मुकाम दिया – नया आयाम दिया था। अगर हीरा ऐसी पत्नी अच्छेलाल को न मिलती तब परिवार शायद ही इतना सुखद स्थिति में होता। परिवार के लिए उसका अमूल्य योगदान अच्छेलाल को इस काबिल बनाया; जिस पर कोई भी पति फक्र महसूस कर सकता था। हीरा परिवार की शान और अच्छेलाल के लिए जान थी। जिस वजह से पूरे परिवार को हीरा वास्तव में हीरा बनाकर चली गई। उसके एक-एक शब्द में माधुर्य होता; लोग उसके आकर्षण में खिंचे चले आते थे। प्रेम और स्नेह का भंडार थी हीरा । वह पूरे परिवार को आदर्श पर चलने का ऐसा पाठ पढ़ाया कि परिवार के सभी सदस्य शिद्दत के साथ उसे हमेशा अपने दिल में बसाकर जीते रहे ।

अमरनाथ त्रिवेदी
प्रधानाध्यापक
उत्क्रमित उच्च विद्यालय बैंगरा
प्रखंड – बंदरा ( मुज़फ़्फ़रपुर )

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