उन्मुक्त पंछी
काश ! अगर मै पंछी होती नील गगन मे पंख फैलाती ,
कोसो-कोस बिन रोक-टोक उडती ही उडती जाती ।
घर-आंगन कभी झरोखे तो कभी उपवन ,बाग -बगीचे,
खेत – खलिहान मे कलरव करते दाना चुगते रहते।
रंग -बिरंगे, खट्टे-मीठे और छोटे-बड़े फलों को खाते,
देश- विदेश और सात समंदर सफर बिना टिकट का करती।
सैर -सपाटे खूब लगाती झूंड की झूंड आसमान मे उडती,
झरने के मीठ नीर पीकर चहकती थिरकती और नहाती।
प्रकृति के इस प्रांगण मे आठो पहर अठखेलियाँ खेलती,
निर्मल,निर्दोष और निडर होती जिधर चाहती उधर घूमती ।
निवाला लेकर घने निकुंज मे उस घोंसला के पास जाती ,
जहाँ चीॅ -चीॅ करती चूजी मां आने का इन्तजार करती।
चकाचौंध जगत मे वनों की हुई ऐसी अंधाधुंध कटाई,
कान भी तरस गया कि वो अब चहचहाहट कहाँ गई
मानव ने जुगत लगाया कृत्रिम कलरव मशीन बनाया ,
करने लगे अब इससे थैरेपी बीमारू और रुग्ण शरीर का।
औद्योगिकीकरण के दौर ने ही तो प्रदूषणों को जन्म दिया ,
लगातार शहरीकरण के विकास ने वनों को लील लिया ।
उजड़ रहा रैन बसेरा उसका जिनसे मैनें एक राज सीखा,
मेल-जोल,अमन-चैन,सुख-शांति और खुशहाल जीवन का।