वह बचपन की यादें
बात कुछ वर्षों पहले की है जब मैं बहुत छोटा था ।जब बच्चा छोटा होता है तो वह सबके दुलारे होते हैं।उसे किसी की परवाह नहीं होती एक दम मस्त मगन जीवन व्यतीत करता है।उसके बहुत सारे रिश्ते नाते उनका ख्याल अच्छा से रखता है ताकि उसके साथ कोई अनहोनी न हो जाए।जब उसकी पहली कदम ताल धरा पर थिड़कती है तो मानो आसमान से नन्हीं परियों की खुशबू महक उठती है।पूरे परिवार में एक अलग सा ही माहौल छा जाता है।सब अपने प्यारी सी दुलारी सी, नन्हीं सी, कोमल सी पंखुड़ियां न जाने किन-किन नामों से संबोधित करते हैं।ऐसा होता है बचपन का प्यार ।वो लम्हें वो सुहाने घड़ी कब बीत जाती है कुछ पता ही नहीं चलता।
वह अपने उम्र के साथ बढ़ते जाता है,उसकी शरारतें भी बढ़ती जाती है।उसकी मनमानी भी बढ़ जाता है ।समय पर खाना, समय पर सोना,समय पर पढ़ना न जाने सब कुछ बदल सा जाता है।कोई रोक-टोक नहीं, बिंदास रहना।ये सब उसको भाने लगता है।हमेशा अपने मन का ही सुनता है।माता-पिता तो प्यार में अंधे होते हैं।उसे उसकी बचपन की गलतियां में भी प्यार ही नजर आता है।कितनी भी गलतियां कर दे क्या मजाल है मां उसे एक भी चाटा लगा दे।पर पिता थोड़ा भावुक भी हो जाते है कभी-कभी थोड़ी शक्ति भी दिखा देते है।ये होता है बचपन की यादें।
एक बार की बात है जब साइकिल चलाने की बात आई तो सभी बच्चों में होड़ सा हो जाता है कि मैं ही इस खेल का नायक हूं।इसको थोड़ा सा अजीब ही अनुभव होता है।इस बात की खुशी में आगे की सूज-बूझ सब खो बैठता है।अगर किसी भी बच्चे को कोई नया समान मिल जाए तो चाहे उससे हो या न हो वह पीछे नहीं हटता चाहे उसका परिणाम जो हो।बात वही हुई ये तो ठहरा नन्हा सा बच्चा भला इससे साईकिल की सवारी कैसे हो पाती।थोड़े ही दूर में ये महाशय एक बच्ची के ऊपर साईकिल चढ़ा दी।अब तो सारा बच्चा इसे छोड़ भाग निकले।इस मासूम को तो ये भी पता नहीं कि हमारे साथ क्या होने वाला है।ये तो मंद मंद मुस्काए जा रहा है।होता भी तो क्या,इसे क्या पता की उसकी एक पैर की हड्डी टूट चुकी है। गांव के कुछ लोग आए बच्ची को उठा ले गई।ये अबोध बालक यूं ही टकटकी लगाकर देखता ही रहा ,तब तक इनके माता-पिता भी दौड़े आए अपने लाल को गोद लिया और चूमने लगा तुझे तो कुछ नहीं हुआ।नहीं मां मैं तो बिल्कुल ठीक हूँ।पर मां मुझे कुछ अच्छा नहीं लगता है ।चलो पिंकी को देख आते हैं।शायद अब उसे एहसास होने लगा था कि दर्द भी होता होगा।
बेटे की बात सुन कर मां का दिल बैठ सा गया बोले चल बेटा देख आते हैं।बच्ची दर्द के मारे रोती जा रही थी।तभी गांव के ही वैद्य महोदय को बुलावा भेजा गया, वह आए ।पिंकी को देख वैद्य जी बोले घबराने की कोई बात नहीं है मैं दवाई दे देती हूं।पिंकी जल्द ही ठीक हो जाएगी।ये भी नन्हा सा बच्चा है भला इसको अभी क्या समझ है।बड़ा होगा सब अपने आप समझ जाएगा।
पर इसकी लार-प्यार ने तो मानो इसकी डर ही को अपने से अलग कर दिया।हमेशा दोस्तों के साथ घूमना ,कभी गाँव से बहुत दूर चला जाना इसकी आदत सी बन गई थी।सभी दोस्त का भी यह बहुत प्यारा था।यह जितना निडर था तो वह उतना साहसी भी था।दिन व दिन उसके स्वभाव में परिवर्तन होता जा रहा था।पर उसका मिजाज़ एक अलग ही था ।अब भी वह अपनी मन का ही सुनता ।बचपन की वह आदतें अभी पूरी तरह से गई नहीं थी।जब वह पढ़ कर विद्यालय से लौट रहा था तो देखा कि कुछ बच्चे बिजली की खंभे पर बैठी चिड़िया को मार रही थी।सभी बच्चों को समझाया गया पर कोई नहीं मान रहे थे।पर हुआ यूं कि एक बच्चे ने चिड़िया को मार गिराया।ये मुझे थोड़ा अजीब सा लगा अरे! ये बेजुबान तेरा क्या बिगाड़ा। क्यूं तूने इसे मार गिराया। झट से मैंने चिड़िया को उठाया और घर की ओर भागे।घर जाकर मैं उसकी मरहम पट्टी की ।कुछ देर में चिड़िया चीं-चीं कर चलने लगी।ये देख मेरा मन खुश हो गया।मुझे एहसास हुआ कि मैं अपने जीवन में आज कुछ अच्छा किया।मेरे मन को बहुत सुकून मिला।
पर मन तो बचपन का ही था।
यही सब सोच कर मेरा मन घबरा जाता था कि शायद मेरे माता-पिता क्या सोचते होंगे मेरे बारे में।कब मैं अपने आपको काबू कर पाऊंगा।लेकिन मुझे यह नहीं पता था कि मेरे साथ भी कभी कुछ हो सकता है।सच में मेरे साथ भी ऐसा ही हो गया।जब मैं अपने सभी सहपाठी के साथ नदी में नहाने गया तो उसी में से एक लड़का पानी में तैरते हुए तेज बहाव में चला गया।सभी लड़के देख कर सन्न सा रह गया।एक दम से मानो सबकी बोलती ही बंद हो गई।मुझे भी कुछ सूझ नहीं रहा था।अब क्या करूं।इतनी देर में मैने अपनी जान की परवाह किए बिना उसे बचाने नदी में कूद पड़ा मुझे क्या पता कि जिसे मैं बचाने जा रहा हूं।वह मुझे ही ले डूबेगा।जैसे मैंने उसके समीप गया ।उसे पकड़ने की कोशिश की तो तपाक से उसने मुझे ही जकड़ कर पकड़ लिया।अब पानी भी सर से ऊंचा था ।अब मैं बुरी तरह से फंस चुका था न तो वह तैर पाता न ही मुझे तैरने देता।मुझे एक युक्ति सुझी – मैंने पानी के नीचे जाकर उसे जोड़ से झटका दिया ,वह कुछ दूर चला गया।इस तरह से हम दोनों की जान बची।हर बार मैं गलती करता था इस बार मैं ही गलती से फंस गया।इस लिए कहा जाता है कि बार बार गलती को दोहराने से वह गलती स्वयं पर भारी पर जाता है।
भोला प्रसाद शर्मा
डगरूआ, पूर्णिया (बिहार)