अपना-पराया- संजीव प्रियदर्शी

Sanjiv

लघुकथा

आज देर शाम रघुनाथ जब घर लौटा तो पत्नी राधिका को डरी-सहमी मकान के सामने बरसाती में पाया। कारण पूछने पर वह रोनी सूरत बनाकर बोली -‘ आज तो मुझसे घोर अनर्थ हो गया है।’ ‘क्या अनर्थ हो गया तुमसे?सब ठीक तो हैं?’-रघुनाथ आशंकित मन से विह्वल होकर पूछा। ‘ क्या बताऊं, कोई घंटा भर पहले एक अजनबी ऊपर के कमरे में घुसकर कुछ ढूंढ रहा था। मैंने उसे चोर समझकर छत से धकेल दिया। गिरते ही वह टन बोल गया। परन्तु गौर से देखा तो वह एक क्षिप्त-भिक्षुक था। मैं उसे आँगन में ही मृत छोड़कर बाहर आ बैठी हूँ। तुम शीघ्र उसके ठिकाने लगाने का उपाय करो। अन्यथा हम बुरे फंस जायेंगे।’ पत्नी की बात सुन रघुनाथ हलकान हो गया। उसे राधिका पर गुस्सा भी आ रहा था परन्तु पहले इस विपत्ति से उबरना था। रघुनाथ को अपने यार- दोस्तों पर अडिग विश्वास था यह कि वे मुश्किल की घड़ी में मदद को हमेशा तत्पर रहेंगे। अतः पत्नी को उन्हें शीघ्र बुला लाने की बात कहकर वहीं से वह लौट गया। कोई दो घंटे बाद रघुनाथ मुँह लटकाए लौटा था । राधिका उसके चेहरे के भाव से भांप गई कि घटना की गंभीरता जान इसके दोस्त आने से मुकर गए हैं।। पूछने पर रघुनाथ रोष में बोला-‘ साले सब वक्त फरोस निकला। इन पर व्यर्थ धन लुटाते रहे।अब तो मेरा माथा दुख रहा है।’- वह चिंतित स्वर में बोला। ‘ऐसा करते हैं, अपना मंगल को बुला लेते हैं। शायद हमें संकट में जान वह आ जाए।’- राधिका जरा रुककर बोली। ‘जिस आदमी को धक्के मार कर घर से बाहर कर दिया हो,भला वह क्यों हमारी मदद करने आयेगा?।’- अविश्वास के लहजे में रघुनाथ बोला। ‘ पूछने में क्या हर्ज है। आखिर खून तो अपना ही है ।’- राधिका ने समझाया। संवाद सुनने के कुछ समय बाद ही मंगल हाजिर था।आते ही राधिका से बोला-‘ भाभी,अब आप लोगों को फ़िक्र करने की जरूरत नहीं।। मैं लाश को अभी नदी किनारे निपटा कर आता हूँ।हाँ, कोई देख भी लेगा तो मैं समझ लूँगा ।’ अभी राधिका आँगन का दरवाजा खोलती कि पुलिस आ गई। पुलिस को देखते ही रघुनाथ के हाथ-पांव फूलने लगे। मंगल भी थोड़ा सहम गया। शायद रघुनाथ के किसी संगतिया ने इत्तिला कर दी थी। हत्या के जुर्म में पुलिस अभी दोनों भाइयों को गिरफ्तार करती कि राधिका बीच में आकर बोलने लगी-‘ किस अपराध में आप इन्हें गिरफ्तार करने जा रहे हैं इंस्पेक्टर साहब? दरअसल यहाँ कोई लाश- वाश है नहीं । मैंने तो सिर्फ अपने पति को अपना-पराया का मर्म समझाने के लिए मात्र एक स्वाँग रचा था, जो अपने भाई से ज्यादा दूसरों पर भरोसा करने लग गया था।’ अब रघुनाथ की आँखें खुल चुकी थीं।वह भाई को गले लगाकर रोने लगा । संजीव प्रियदर्शी

फिलिप उच्च मा० विद्यालय

बरियारपुर, मुंगेर

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