पृथ्वी को बचाना-एक चुनौती पूर्ण कार्य-श्री विमल कुमार
“विनोद”

Bimal Kumar

साधारणअर्थ में पृथ्वी जिसे पर्यावरण कहा जाता है जिसका शाब्दिक अर्थ है”परि”अर्थात बाहरी तथा आवरण का अर्थ हुआ ढका हुआ।दूसरे शब्दों में”किसी जीव को चारों तरफ से जो जैविक तथा अजैविक घटक घेरे हुये रहते हैं”उसे हम पर्यावरण कहते हैं।
पृथ्वी जहाँ पर कि जल,जंगल, जमीन,जीव-जंतु,पशु-पक्षी आदि वास करते हैं उसे ही हम पृथ्वी कहते हैं।आज पृथ्वी दिवस है,जिस दिन हमें जल,जीवन और हरियाली के संदेश को जन-जन तक पहुँचा के लोगों को इसकी रक्षा करने के लिये जागरूक करने की है,क्योंकि आज लगभग सारे चीज विषाक्त होते जा रहे हैं तथा मनुष्य के साथ-साथ सारे जीव-जंतुओं के बीच अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिये त्राहिमाम मचा हुआ है।


(1)जल के लिये संघर्ष- आज जैसा हम देखते हैं कि बालू की बिना किसी मानक को निर्धारित किये तथा एन॰जी॰टी॰ के निर्धारित मानक की अनदेखी करके बालू माफियाओं के द्वारा बालू का उठाव करके नदियों के अस्तित्व को ही समाप्त कर दिया,जिसके चलते नदी का जल स्तर नीचे जा रहा है,नदियों में पायी जाने वाली जैव-विविधता का लगातार विलुप्तिकरण हो रहा है।साथ ही भू-माफियाओं के द्वारा तालाबों का प्लाटिंग करके तालाबों तथा जल संग्रहण क्षेत्र को नष्ट कर दिया गया।डीप बोरिंग करके लगातार भू-जल का दोहन किया जा रहा है।सबसे दुःख की बात है कि हम पृथ्वी से सिर्फ प्राप्त करने की लालसा रखते हैं,पृथ्वी को देने की नहीं।


आधुनिकता के दौर में लगातार कंक्रीट के जंगल बिछा दिये जाने से वर्षा के जल का पृथ्वी के अंदर प्रवेश करने पर बाधा उत्पन्न कर दी गई है जिसके कारण से वर्षा के जल का संरक्षण कर पाना विश्व पर्यावरण के लिये एक चुनौतीपूर्ण कार्य हो गया है।
साथ ही पृथ्वी में जल प्राप्त होने वाले जगहों में गोबर,रासायनिक खाद ,कीट नाशक तथा अवशिष्ट पदार्थ के फेंक देने के कारण जल के गुणवत्ता में प्रदूषण फैलता जा रहा है।इसके अलावे शहरों था बड़े-बड़े नगरों तथा औद्योगिक स्थलों से निकले हुये अवशिष्ट जल नदियों में जाकर प्रदूषित कर देते हैं जिसके कारण उसमें वास करने वाली जीव-जंतु प्रदूषण का शिकार होकर विलुप्तिकरण के कगार पर चली जा रही है।


आज के समय में जब जल के लिये तृतीय विश्व युद्ध तक होने की प्रबल संभावना बढ़ती जा रही है,
वैसे समय में एक शिक्षक के साथ

साथ पर्यावरणविद होने के नाते
मेरा यह कहना है कि”नदी,कूप,
जलाशय,तालाब रखना होगा पास,वरना भावी पीढ़ी नहीं करेगी माफ।


(2)निरवनी करण की समस्या-
पृथ्वी में प्रदूषण की समस्या आज इस तरह बढ़ी हुई है कि कार्बन डाई ऑक्साइड,कार्बन मोनोक्साइड तथा अन्य जहरीली गैसों के प्रभाव ने लोगों का जीवन जीना हराम कर रखा है।बड़ी दुर्भाग्य की बात है कि वृक्षारोपण करना तथा वृक्ष बचाना लोग वन,पर्यावरण तथा जलवायु परिवर्तन विभाग की जिममेवारी मानते हैं।
सरकारी स्तर पर प्रतिवर्ष जुलाई-
अगस्त के महीने में’वन-महोत्सव’
मनाकर अधिक-से-अधिक वृक्ष लगाने का प्रयास तो करते हैं,लेकिन
लोग जागरूकता के अभाव में उन वृक्षों को काटकर जलावन तथा घरों में प्रयोग होने वाले लकड़ी के समान के रूप में करने से बाज नहींआतेे हैं। इसलिये पृथ्वी पर उत्सर्जित पेट्रो केमिकल्स तथा अन्य जहरीली गैसों को अवशोषित करने के लिये जितने वृक्षों की आवश्यकता होती है,
उसकी संख्या बहुत ही कम हो रही है।
इसके अलावे वृक्ष की जितनी भी प्रशंसा की जाय वह कम ही होगी।साथ ही पर्यावरण विज्ञान का मानना है कि जितनी तेज गति से विकास होगा,उतनी ही तेज गति से पर्यावरण का विनाश होगा।आज के समय में विकास बाबा को खुश करने के लिए तथा सड़कों के चौड़ीकरण करने के नाम पर वृक्षों को उसकी बलि वेदी पर चढ़ाने के लिये चिन्हित कर देना ही सरकारी महकमा अपना अधिकार समझता है।सरकार को चाहिये कि सड़क बनाने वाली कंपनी को अनापत्ति प्रमाण-पत्र
देने के समय वृक्षों का काटे जाने के बदले दस गुणा अधिक वृक्ष लगवाने का आदेश जारी करना
चाहिये।
वृक्षों की कमी होने तथा गाड़ियों के अधिकतम परिचालन होने से
निकलने वाली पेट्रोकेमिकल्स के चलते पृथ्वी का ताप बढ़ गया है,
जिसके चलते पृथ्वी के दाब और ताप में असंतुलन पैदा हो गई है ,तथा तेजी से जलवायु परिवर्तन हो रही है।


(3) मृदा प्रदूषण की चुनौती-
आज के समय में जमीन की उर्वरा शक्ति धीरे-धीरे कम होती जा रही है तथा अत्यधिक जनसंख्या के भरण-पोषण के लिये मानक से अधिक रासायनिक खाद तथा कीटनाशक का प्रयोग करके भूमि के मूल रूप को विनष्ट किये जा रहे हैं,क्योंकि हम जितना रासायनिक खाद भूमि में डालते हैं उसका कुछ भाग ही भूमि अवशोषित करती है तथा बाकी भाग भूमि पर रह जाती है जो कि बरसात के जल के साथ पृथ्वी के अंदर जाकर ई-कोलि नामक बैक्टीरिया को विकसित करती है जिसके चलते
बी-कोलि नामक बीमारी का जन्म होता है।इससे बचने के लिये जैविक खाद तथा नीम युक्त कीटनाशक का प्रयोग किया जाना चाहिये।लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि लोग अपने खेतों में लगातार थाइमाइट, फोलीडोल तथा अन्य खतरनाक कीट नाशक का प्रयोग करके केचुआ सहित अन्य असंख्य जीव-जंतुओं को नष्ट कर देते हैं।पर्यावरण विज्ञान का मानना है कि एक केचुआ एक वर्ष में दो से सत्तर टन मिट्टी निकालने की क्षमता रखता है।साथ ही थाइमाइट जैसी जहरीली कीटनाशकों के प्रयोग किये जाने के कारण 40%कैंसर होने की संभावना बढ़ जाती है ,ऐसा पर्यावरण विज्ञान का मानना है।
इसके अलावे बढ़ता हुआ प्रदूषण जो कि वायु,ध्वनि ,धूलकण आदि के द्वारा फैल रही है,पृथ्वी के लिये एक चुनौतीपूर्ण कार्य है।
वर्तमान समय में जब भारत के साथ-साथ संपूर्ण विश्व के देशों में कमोबेश लाॅकडाउन की स्थिति बनी हुई है पृथ्वी के बढ़ते हुये प्रदूषण में बहुत कमी आयी है,जिसके सुपरिणाम के रूप में कोयल की मीठी तथा सुरीली कूक सुनाई देती है,बाघिन अनुष्का ने राँची के ओरमांझी स्थित बिरसा जैविक उद्यान में अपने तीन शावकों को जन्म दिया।
दूसरीओर मुंबई और उसके आस -पास के क्षेत्रों में प्रवासी पक्षियों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि का देखा जाना,जिसकी वजह नवी मुंबई स्थित एक झील में पानी का साफ होना है।पर्यावरण विज्ञान का मानना है कि”प्रदूषण परागण तथा जनसंख्या को मारती है।”
अंत में पृथ्वी को बचाने के लिये हमलोगों को संकल्प लेना है कि-
हम जल को बचायेंगे,
हम जंगल को बचायेंगे,
हम जमीन को बचायेंगे,
हम धरती माता के संतान हैं,
हम धरती माता को बचायेंगे ,के संकल्प के साथ-साथ आने वाले कल के समय में पृथ्वी के सभी जीव-
जंतुओं का भला हो की ढेर सारी शुभकामनायें।


आलेख साभार-श्री विमल कुमार
“विनोद” प्रभारी प्रधानाध्यापक राज्य संपोषित उच्च विद्यालय पंजवारा,
बांका(बिहार)।

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