श्री विमल कुमार”विनोद”लिखित लघुकथा।
मोहन बाबू जो कि एक दफ्तर में काम करते हैं।इनके परिवार में कुल मिलाकर लगभग दस सदस्य हैं, जिनमें से इकलौता कमाने वाले मोहन बाबू ही हैं।दिनभर कार्यालय के कार्य से परेशान वह जब घर आते हैं तो घरेलू समस्या से त्रस्त वह परेशान रहने लगते हैं। कार्यालय तथा घरेलू समस्याओं से परेशान मोहन बाबू को ऐसा महसूस हो रहा है कि समस्या से त्रस्त होकर जीवन में करें तो क्या करें जायें तो कहाँ जाये?
निरंतर जीवन की तबाही से व्याकुल होकर एक दिन वह गंगा के तट पर चला जाता है।जीवन के थकान से उबे हुये मोहन बाबू जो गंगा घाट पर पहुँचते हैं तो वहाँ का गमगीन नजारा देखकर इनका मन मस्तिष्क अपने जीवन की समस्याओं से हटकर उस नश्वर संसार के परिवेश में भटकने लगता है,जहाँ पर चारों ओर दुःख,
कष्ट,दर्द का आलम उभर रहा था।देखते ही देखते गंगा के उस घाट
पर सैकड़ों लाशें अंतिम संस्कार के लिये आकर लग जाती है।देखते ही देखते शाम हो जाती है,घाट
पर चिताओं को जलाने के लिये वैदिक मंत्रोच्चार से उसको अग्नि को अर्पित किया जा रहा है।शाम का समय कहीं कुत्ते आपस में लड़ रहे हैं तो दूसरी ओर चिताओं से निकलने वाली तेज लपटें मोहन बाबू के मन-मस्तिष्क को अपनी ओर झकझोर रही है।चिताओं से निकलने वाली तेज लपटें,उसकी तेज रोशनी जो कि संपूर्ण घाट पर एक गमगीन के साथ चमकदार रोशनी को प्रकाशित कर रही थी।लाशों का घाट पर जलने आना,उसके साथ आये परिवार वालों की इस संसार के प्रति नश्वरता देखकर तो मानो मोहन बाबू स्तब्ध सा रह गये हैं। मोहन बाबू धीरे-धीरे किनारे गंगा घाट में बैठ जाते हैं तथा कल्पना करने लगते हैं कि हाय रे ये जिन्दगी किस काम की,जिसके लिये लोग जीवन भर परेशान रहते हैं,जीवन में अधिक -से-अधिक सुख प्राप्त करने के लिये लालायित रहते हैं वही लोग चिता पर बेदर्दी के साथ अग्नि से प्रवाहित कर उसे तब तक जलाने का प्रयास करते हैं जब तक कि वह जलकर राख न हो जाय।फिर मन-ही-मन वह सोचता है कि इस मृत्यु लोक में लोग कितने स्वार्थी हैं कि थोड़ी देर तक गम,फिर धीरे-धीरे उस मृत शरीर को आग में देकर भुलाने का प्रयास करने लगते हैं।इसके बाद फिर मोहन बाबू उस जलती चिता को गमगीन निगाहों से देख रहे हैं तथा कभी-कभी तो वह सोचने लगता है कि दुनिया बनाने वाले तूने कैसी ये दुनिया बनायी
जहाँ पर लोगों का यही हस्र होता है कि एक ओर चितायें जलती रहती है तो दूसरी ओर लोग उनको भूलने की कोशिश करने लगते हैं।
गंगा के घाट के किनारे बैठकर मोहन
बाबू कभी वहाँ जलती हुई चिताओं को देखकर रहे हैं तो कभी श्मशान घाट के उस भयावने दृश्य को जहाँ सुनसान,वीरान घाट पर कहीं कुत्ते
आपस में कुछ खाने के लिये आपस में छीना झपटी करते हैं तो दूसरी ओर गंगा में उठती लहरें जो कि मोहन बाबू के मन-मस्तिष्क में हिलोरें मारने लगती है।इस बीच जलती हुई चिताओं को देखकर एकाएक मोहन बाबू का मन सांसारिक मोह-माया से विचलित होने लगता है तथा बैठे-बैठे वह इस मृत्यु लोक की लीलाओं में खो जाते हैं।कई दिनों तक निराधार गंगा के तट पर बैठकर जलती चिताओं के दृश्य ने मोहन बाबू के दिलो-दिमाग में इस मोह-माया से युक्त संसार के प्रति विरक्ति सी उत्पन्न कर दी है।इसी बीच एकाएक जब मोहन बाबू के मन-मस्तिष्क में तेज गति से एक झटका सा लगता है और उनका ध्यान टूट जाता है।एक आवाज सी सुनाई पड़ती है कि मोहन
उठो,जागो, देखो अब तुम्हारे मन- मस्तिष्क से तनाव दूर भागता जा रहा है।अपने परिवार के पास जाओ, तुम्हारे परिवार के लोग तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं।जीवन में तनाव से मत डरो,वह तुम्हारा कुछ भी बिगाड़ने नहीं जा रही।जीवन में धैर्य,लगन और हिम्मत के साथ काम करो,सारी बाधायें दूर हो जाएगी।इसके बाद मोहन बाबू धीरे-धीरे उठते हैं, मां गंगा को प्रणाम करना ही चाहते हैं तभी वहाँ गंगा घाट पर लगी बोर्ड पर नजर पड़ती है,जिसमें लिखा हुआ है “मणिकर्णिका घाट “।यह देखकर मानो मोहन बाबू की खुशी का ठिकाना नहीं क्योंकि उन्होंने अपनी
“दादी माँ”से बचपन में सुना था कि
बनारस में एक”मणिकर्णिका घाट” है
जहाँ पर चौबीस घंटे अनवरत रूप से
चितायें जलती ही रहती है।इसके बाद
मोहन बाबू प्रेम से गंगा में डूबकी लगाते हैं उसके बाद वहाँ पर अवस्थित शिव मंदिर जो कि गंगा जी के जल में अवस्थित है तथा झुका हुआ है,में जलार्पण एवं पूजा-पाठ करके अपने घर की प्रस्थान कर जाते हैं।
आलेख साभार-श्री विमल कुमार “विनोद”शिक्षाविद,भलसुंधिया,गोड्डा
(झारखंड)।