सर्वप्रथम “टीचर्स ऑफ़ बिहार” के उस मंच को प्रणाम करता हूं,जिसके माध्यम से यह जानकारी मिली कि २८ मई २०२१ को सम्पूर्ण विश्व “विश्व माहवारी दिवस”मना रहा है। हालांकि यह समस्या महिलाओं से जुड़ी है लेकिन शब्द “जागरूकता” किसी लिंग,जाति या धर्म से परे है। यह भारतवर्ष उन दिनों का भी साक्षी है जब हमारे समाज में “सती प्रथा” जैसी कुरीति महिलाओं के अस्तित्व पर खतरा बन कर मंडरा रहा था, उस समय में “माहवारी” अपशकुन का पर्याय माना जाता था। इस दौरान महिलाएं किसी भी मांगलिक कार्य में हिस्सा नहीं ले सकती थीं। यहां तक कि रसोई में भी प्रवेश वर्जित होता था। पूरे माहवारी के दौरान समाज और परिवार के मुख्य हिस्से से कट कर रहना पड़ता था। मानो यह मासिक चक्र न हुआ जीवन का कुचक्र हो गया जिसका सारा कष्ट सहे महिला और दुष्प्रभावित हो तत्कालीन परिवार और समाज,ऐसी मान्यता समाज में घर कर गई थी। समय बदला,समाज बदला,चेतना जगी,जागरूकता बढ़ी,महिलाएं शिक्षित हुईं,अपने अस्तित्व के लिए आवाज उठाई,अपने ओजस्वी शब्दों से समाज को यह बतलाने में कामयाब हुई कि “मेरे” बिना यह समाज कभी सम्पूर्ण हो ही नहीं सकता। स्त्रियों का जो मासिक चक्र है वह प्राकृतिक है और इससे स्वच्छता का बोध होता है। इसका महिलाओं के जीवन पर अनुकूल असर होता है। हां,यह बात जरूर है कि शायद आज भी महिलाएं इस दौरान पूजा पाठ से परहेज करती हैं।पहले जैसी नारकीय स्थिति नहीं है। वो अपना खयाल ख़ुद रख सकती हैं। इस समस्या से निजात पाने के लिए आज बाजार में बहुत सारा विकल्प मौजूद है। सुदूर देहाती क्षेत्र में अपेक्षाकृत स्थिति आज भी गंभीर है। ऐसे में शिक्षित मंच और शिक्षित लोगों की यह नैतिक जिम्मेवारी बनती है कि चेतना और जागरूकता फैला कर इसके सार्थक प्रभाव को जन जन तक पहुंचाएं
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