मूल्य शब्द का शाब्दिक अर्थ है-उपयोगिता या वांछनीयता।सामान्यतः किसी समाज में उन आदर्शों को महत्व दिया जाता है,जिनसे उस समाज के व्यक्तियों का व्यवहार निर्देशित तथा नियंत्रित होता है, जिसे मूल्य कहते है। धर्मशास्त्र में नैतिक नियमों को मूल्य कहा जाता है।मनोवैज्ञानिकोंने मूल्यों को मनुष्य की रुचियों,पसंदों एवं आवृतियों के रूप में माना है।किसी समाज के वे विश्वास,आदर्श ,सिद्धांत,नैतिक नियम और व्यवहार,मानदंड जिन्हें समाज के व्यक्ति महत्व देते हैं और जिनसे उनका व्यवहार निर्देशित एवं नियंत्रित होता है,वे समाज और उसके व्यक्तियों के मूल्य होते हैं। जहाँ तक मूल्यों के विकास की बात है उसकी शुरुआत परिवार से ही होती है जहाँ माता-पिता तथापरिवार के अन्य सदस्य बच्चों मेंअच्छी संस्कार देने का प्रयास करते हैं। इसके अलावे मनुष्य परिवार से बाहर निकलकर भीस्त्रियों से मातृत्व,बड़ों से पितृत्व,सामान्य आयु वालों से भातृत्व संबंधों को बनाता है। बच्चा जन्म के बाद से जैसे-जैसेबड़ा होता जाता है वह मानवीय,सामाजिक,नैतिक,राजनैतिक सभी गुणों को सीखता है। वस्तुतः मूल्यों की शिक्षा बच्चों को घर से ही शुरुआत होती है। जिस’घर’ का निर्माण मानसिक तथा भावनात्मक विकास से होताहै ।घर में जहाँ निःस्वार्थ स्नेह,सुरक्षा,सौहार्द,सम्मान और परस्पर सम्मान के भाव पलते हैं ।बड़े होकर भी और दूर जाकर भीघर याद आता है,क्योंकि घर मन में है,बालमन में बना होता है ,जो बड़े होने पर या दूर जाने पर साथ रहता है।बच्चों में मूल्यों के विकास कराने के लिये मूल्य आधारित कहानियाँपढ़ने या सुनने के लिये अवसर प्रदान किया जाना चाहिए।मूल्यआधारित व्यवहारों के प्रदर्शन के लिये बच्चों को उपयुक्त पुरस्कारदिया जाना चाहिये। परिवार में माता-पिता के विचार,आदर्श और आकांक्षायें,उनके परस्पर संबंध और व्यवहारउठने-बैठने,बोलने-चालने,,खाने-पीनेवेशभूषा के तौर तरीके,शैली आदि होते हैं। अंत में हम कह सकते हैं किबालक में स्वस्थ आदतों तथा मूल्यों के विकास के लिये माता-पिता को अपनी कमियों और कमजोरियों को समझना चाहिये।साथ ही बच्चों को माता- पिता केद्वारा सुन्दर,नीतियुक्त,विचार,आदर्श को विकसित करने का प्रयास किया जाना चाहिये ताकि उसमें मूल्यों का विकास हो सके,जिससे किशोरावस्था को तबाह होने सेबचाया जा सके। आलेख साभार-श्री विमल कुमार “विनोद”शिक्षाविद,भलसुंधिया,गोड्डा,(झारखंड)।
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