मैं ही देश हूँ – संजीव प्रियदर्शी

Sanjiv Priyadarshi

लघुकथा

शहर कई दिनों से अशांत है। लोगों में नफ़रत और भय का माहौल है।कल तक जो लोग आपस में गले मिला करते थे, आज एक दूसरे की गर्दन काटने के फिराक में हैं। पहले एक शहर हुआ करता था, परन्तु फ़साद ने चार हिस्सों में बांटकर इसे अपनी-अपनी सीमाओं में लामबंद कर दिया है। शहर का वह चौराहा, जहां सभी पंथ के लोगों की नित्य चौकड़ियाँ जमा करती थीं, वीरान पड़ा है। बम और गोलियों की आवाजों के साथ रह-रहकर फ़साद की खबरें आ रही हैं। इसी बीच चौराहे पर एक बूढ़ा व्यक्ति आता है जिसके शरीर के कई हिस्सों पर गोलियों और बमों के घाव तथा चेहरे पर खून के छींटें हैं। वह रह रहकर फसाद रोकने की गुहार करता है, पर कोई पक्ष उसकी एक नहीं सुनता है।कुछ समय उपरांत बूढ़े की वीभत्स स्थिति देख एक पक्ष की थोड़ी संवेदना जगती है ।वे सहमते हुए पास जाते हैं। लेकिन बूढ़े को सिर पर ताकियाह,गले में क्रास,ललाट पर गोरोचन,गेरु कुरता,हाथ में कड़ा,जेब में कंघा,कमर के नीचे नुंगी के अलावा पैरों में वर्क बूट पहने देख उन्हें यह समझ में नहीं आता है कि यह व्यक्ति किस संप्रदाय का है ? दूसरे, तीसरे और चौथे पंथ वाले भी बूढ़े के पास जाते तो हैं, परन्तु उसके बदन पर अपने पंथ से अधिक दूसरे वालों के परिधानों को देख बिना कोई मदद किए लौट आते हैं। सभी के लौटते ही पुनः गोलियाँ और बम चलने लगते हैं जो आ आकर बूढ़े की देह को और लहूलुहान बना देते हैं । इससे पीड़ित होकर वह चीख-चीखकर बोलने लगता है – “अरे बन्दों देखो, ये खून, ये घाव, यह पीड़ा सब तुम्हारे दिए हुए हैं। तुम लोग जितना आपस में लड़ोगे, मैं उतना ही जख्मी और कमजोर होता जाऊंगा। तुम लोग आपसी भेद-नफ़रत त्याग कर मुझे पहचानो।जानते हो मैं कौन हूँ ? नहीं ••• तो सुनो।मैं ही देश हूँ। हाँ हाँ, तुम्हारा देश।” बूढ़े की पहचान होते ही सभी एक साथ उसकी ओर दौड़ पड़ते हैं। अब उन्हें अपनी गलतियों का अहसास हो चुका था।

संजीव प्रियदर्शी

फिलिप उच्च माध्यमिक विद्यालय

बरियारपुर, मुंगेर

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