बबली की पाठशाला : मो. ज़ाहिद हुसैन

संज्ञानात्मक विकास एवं शिक्षा-1
( प्रथम पाठशाला)


बच्चे जब पैदा होते हैं तो वे नये परिवेश में रोते हैं। मां जब उसके मुंह से स्तन को लगाती है तो वे स्वतःस्फूर्त दूध पीने लगते हैं। मतलब कि बच्चे बिल्कुल अबोध पैदा नहीं होते हैं।

बबली बचपन में काफी शरारत किया करती थी। वह अक्सर घर की चीजों को तोड़-फोड़ करती रहती। वास्तव में बच्चों की शरारत, शरारत नहीं होती, वे कुछ ढूंढने का प्रयास करते हैं, उसी दौरान उनसे कुछ गलतियां हो जाती हैं और चीजें टूट-फूट जाती हैं। जिसे हम बड़े बदमाशी या शरारत का नाम देते हैं। वास्तव में यह अति क्रियाशीलता उनकी खोजी प्रवृत्ति है। 
जिद्दी बबली के मन के मुताबिक थोड़ा-सा भी कुछ अलग हुआ कि वह घंटों रोती। वह अपनी मां से मार खाती रहती। पापा उसे बहुत प्यार करते। पापा जी जब भी बाहर से घर आते, उसके लिए चॉकलेट या कोई भी चीज जरूर लाते। रोते रहने पर भी उसके भोलापन और बुद्धिमता मां-बाप के दिल को मोह लेती। नन्हीं बबली ज्यादातर अपनी दादी के गोद में ही रहती है। दुखी होने पर वह मां के बजाय दादी के गोद में ही जाती और उसकी रूलाई वहीं थमती। ज्यादातर वह दादी के साथ ही सोया करती और दादी मां राजकुमार, राजकुमारी और उनके उड़न खटोले की कहानी सुनाया करती। 
    बबली जब पैदा हुई तो वह 2450 ग्राम की थी। ऐसे बच्चे को एलबीडब्ल्यू (Low Birth weight) कहा जाता है। जन्म के समय बच्चे का वजन कम से कम 2500 ग्राम होना चाहिए। मां के दूध से एलबीडब्ल्यू की भरपाई हुई । वह बहुत दुबली-पतली थी। डॉक्टर साहब ने 1 महीने के बाद बच्चे को लेकर हॉस्पिटल बुलाया था। 1 महीना ही बीता था कि गाड़ियों की रोशनी और आवाजों से उसकी क्रियाशीलता मां-बाप में जैसे गुदगुदी पैदा कर देती। वे बोलते, देखिए न! रोशनी को कितनी टकटकी लगा कर देखती है। आवाजों को सुनकर हरकत करती है। जैसे-जैसे बढ़ती गयी। उसकी क्रियाशीलता बदलती गयी। जब वह 3 माह की हुई तो अंगूठे को चूसती, हाथों को खोलती, बंद करती। जैसे ही भूख लगती जोर से चिल्लाती, मां उसे स्तन से लगा लेती। आधी रात में मां- बाप को रोकर उठा देती और पानी पीने का संकेत देती- मम् –मम्। पापा जल्दी ही गिलास लेकर धरतीकल चला कर ताजा पानी लाकर उसे पिलाते। फिर वह सो जाती।
थोड़ी और बड़ी हुई तो उसकी मौसेरी बहन जो 8 वर्ष की थी, उसे बबली बहुत प्यारी लगती। गोद में लेकर उसे खेलाती-घुमाती। रोने पर मां के पास दूध पिलाने को ले जाती। मां के नहीं होने पर वह कुछ ऐसी-वैसी मुंह से आवाजें निकालकर और उंगलियों को नचाकर बहलाने की कोशिश करती। रूम के पंखे स्विच ऑन कर चलाती, फिर ऑफ कर देती। बबली भी स्विच को दबाने के लिए उंगलियों को बढ़ाती और वह भी ऐसा करना चाहती, नहीं होने पर वह रोती। मौसेरी बहन उसकी उंगलियों को लेकर स्विच के पास ले जाती और ऑन करती तो पंखा चलने लगता। बबली के चेहरे पर खुशी का भाव देखते ही बनता। वह समझती कि मेरे ही दबाने से पंखा चल रहा है, जबकि उसकी नाजुक उंगलियों से स्विच दबती ही नहीं थी। लेकिन वह अपने उंगलियों को स्वीच पर रख कर पंखे चलाने का प्रयास जरूर करती। ऐसे भी 3-4 माह का शिशु जब झुंझुने से हाथ स्पर्श हो जाने पर आवाज सुनता है तो वह इसे दोहराने का प्रयास करता है। कुछ दिनों पश्चात वह झुनझुना बजाने में विशेषज्ञ हो जाता है।

कम से कम दो क्रिया पद्धतियों के समन्वय की आवश्यकता होती है-पकड़ना एवं सुनना। वह वस्तुओं को परिचालित करना भी सीखता है। खाने की चीजें बबली के सामने बढ़ाने पर मुंह फाड़ देती और उसे अपने हाथों से पकड़ कर चूसने लगती। इस तरह उसे ललचाना तो मौसेरी बहन के लिए रोजाना का खेल ही बन चुका था। बबली जब 7 माह की थी तो उसने चावल को अपने मुंह में ठूंस ली, फिर उसे मां जल्दी से निकाल दी कि गले में फंस न जाए। 
बबली में एक बहुत बड़ी खूबी थी। जब वह रोती तो कुत्ते के बच्चे के पास ले जाने पर वह चुप हो जाती। कुत्ते से वह बहुत प्यार करती थी। जब उसका मौसेरा भाई कुत्ते के पिल्ले को कान पकड़कर उठाता तो उसमें वह तो लिपट ही जाती। काफी बड़ी होने तक भी कुत्ते के बच्चों से वह खेलती रहती । 
13 माह की उम्र में डंडे से बर्तनों को पीटती और आवाजें निकालती । मां उसे पीटती । फिर भी मौका मिलने पर बर्तन पीट कर आवाजें निकालती। सिलसिला इसी तरह चलता रहता-बर्तन पीटने और फिर मां से पिटाने। बच्ची अब खुब प्यारी प्यारी बातें करती। लोगों से बतियाती है और अपना अनुभव भी बताती। लोग उसे ज्यादा बोलने के लिए माहौल रचते। बच्चियों के जो सहजात गुण होते हैं गुड्डे-गुड़ियों से खेलना, मां के पल्लू को सरकाना, वह सब कुछ बबली करती रहती।
मां के दुपट्टे को सर पर रखती। फिर सरक जाने पर फिर उसे लपेट कर अपने सर पर रखती। उसे बहुत मजा आता। पता नहीं मां के सिर पर रखे दुपट्टे को देखकर क्या समझती जो उसे खींचकर अपने सर पर रख लेती। शायद वह मां का नकल उतारती।
एक बार की बात है। गैस चूल्हे पर उसकी मां कचौड़ी बना रही थी तो यह लड़की क्या करती है कि ऑन- ऑफ करने वाले स्विच को ही खींच डालती है। स्विच शायद पहले से ही खराब थी। इसलिए खींचने से वह निकल गई और आग की लपटें जैसे ही लपकी। चिल्लाहट मच गई। दादी भी दौड़ी आई, लेकिन तब तक उसकी माँ ने फुर्ती दिखाते हुए मेन स्विच बंद कर दी थी, तब सबकी जान में जान आई। तब से वह ऐसी डरी कि चूल्हे के पास जाना ही भूल गई। शायद वह मां को देखकर स्विच ऑन-ऑफ करना चाहती थी, लेकिन इसका आभास उसे नहीं था कि ऐसा भी हो सकता है। 
उसके पापा ने उसे बैठने के लिए एक छोटी-सी कुर्सी खरीदी थी। उस पर वह गर्व से बैठती। कभी कुर्सी के सहारे पलंग पर चढ़ जाती है तो कभी पलंग से कुर्सी पर पैर रखते हुए सीधे धड़ाम नीचे आ जाती और उसे चोट भी लगती, लेकिन लड़की है कि बाज नहीं आती। एक दिन तो ऐसा हुआ कि वह पलंग पर चढ़कर खिड़कियों को जोर-जोर से पटक रही थी। उसकी उंगलियां दब गई। चोट आई। थोड़ा खून भी निकल आया। कुछ दिन रोई गाई। फिर इलाज से उंगलियां ठीक हो गईं । 
उसकी दादी मां कहानियां सुनाने में इतनी पारंगत थी कि सुनाने का लहजा वाल्टर डी ला मेयर की ‘मारथा’ (Martha) से कम न था, बल्कि कुछ ज्यादा ही था। उसकी दादी मां जब कहानियां सुनाती तो बीच-बीच में गा गा कर सुनाया करती। बबली एकदम चुप से सुनती। थोड़ी भी कहानी रुकने पर वह दादी माँ को टोक देती,और सुनाइए,और सुनाइए। दिन में बबली भी कुछ-कुछ उसी तरह गाती। 
येही महलिया में पौआ-पाटी कर ली, 
नम् मा रखयलो घुटूरन जी, घुटूरन जी
उस समय ब्लैक एंड व्हाइट टीवी का ही जमाना था। नायक-नायिकाओं को नाचते देखकर बबली भी नाचती। मां- बाप भी फूलों नहीं समाते। कुछ न कुछ अक्कड़ बक्कड़ बोलती रहती। गुनगुनाती। टूटे-फूटे गाने भी गाती। दादी मां के गीतों में कुछ-कुछ जोड़कर वह गाती रहती। पापा तो उसकी बातों को समझ नहीं पाते। लेकिन मां उसकी हरकत को समझ लेती कि कहां से क्या बोल रही है। 
    जब वह 3 बरस की हो गई। मां के कहने पर पापा ने उसे बगल के ही स्कूल में नाम लिखवा दी। वहां उसे पढ़ने में मन नहीं लगा। मास्टर जी भी उसके चेहरे की किताब को पढ़ नहीं सके। रोनी-सी सूरत लेकर रोज घर आती और वह स्कूल खुश होकर नहीं जाती। कुछ दिनों के बाद पापा  उसके मनोभाव को समझ गए। स्टूडेंट लाइफ में बच्चों को ट्यूशन पढ़ाया करते थे, इसलिए उन्हें कुछ-कुछ बच्चों का मनोविज्ञान पता था। पापा ने उसका नाम स्कूल से कटवा दिया। पापा उसे इधर-उधर घुमाते और बहुत सारी चीजों को दिखाते और उसके बारे में बातें करते। बेटी यह क्या है? वह क्या है? गाय है। भैंस है। फूल, पत्तियों, चिड़ियों और नदियों को दिखाया करते और उसके बारे में बताया करते। उसे पापा ने सबसे पहले सवा तीन वर्ष की उम्र में रेलगाड़ी पर चढ़ने का अनुभव कराया था। फिर वह दियासलाई से दूसरे बच्चों की मदद से रेलगाड़ी बनाती और उसे आंगन में खींचती चलती। छोटी उम्र से ही उसे गुड्डे-गुड़ियों का खेल बहुत पसंद था। दादी मां कपड़े की गुड़िया बना देती। लो, यह गुड़िए की आंख और यह गुड़िए का कान। 
सना की गुड़िया, 
मिसरी की पुड़िया ,         
टब में नहाए,
गाना सुनाए—-।
पढ़ती है फर फर 
लिखती है सर सर। 
बस्ता उठाए
स्कूल जाए 
सना की गुड़िया
मिसरी की पुड़िया

दिवाली के मौके पर कुल्हिया-चुकिया जरूर खरीदती। पापा के साथ साइकिल चढ़कर बाजार जाती। थोड़ी फड़ही, थोड़ा चना और थोड़ी मकई के भूने और बतासे खरीदकर लाती। उसे मिट्टी के बर्तनों में रखती और सभी को बांटती और खुद खाती, उसे इन सब चीजों में काफी दिल लगता। 
अक्सर दूल्हे-दुल्हन का खेल खेलती। किसी लड़के को दूल्हा बना लेती और खुद दुल्हन बन जाती तो कभी वह दूसरी लड़की को दुल्हन बनाती और खुद दुल्हा बन जाती। मां के दुपट्टे साड़ी का काम करती और भी दुपट्टे सहेलियों से इंतजाम कर लेती और रंग-बिरंगे माहौल रच डालती। 
पापा से काफी हिल मिल गई। प्यारी-प्यारी बातें करती। पापा चित्र बनाते और उसमें बबली सेम की हरी पत्तियों, गुलाब के फूलों, मोम के सतरंगों से रंग भरा करती। पापा उसे ‘ एक प्यासा कौआ,’ कबूतर और जाल’, ‘टोपीवाला और बंदर’ की कहानी सुनाया करते। गाना सुनाया करते। पापा ने उसे 100 तक गिनती, 10 तक का पहाड़ा और एक अंक का जोड़-घटाव बिना हासिल सिखाया। पापा  स्केच पेन से एक उजला सनमाइका लगा हुआ टेबल पर कुछ-कुछ लिखवाते रहते। इस तरह उसे हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी का अक्षर ज्ञान हो गया। बबली जब सुबह सवेरे पापा के साथ टहलने जाती तो साथ में थोड़ा चावल के भूने लेते जाती। एक तालाब के किनारे बैठ कर, दोनों मछलियां को भूने खिलाया करते। बबली ने प्रश्न किया,”पापा, मछलियां क्यों तैरती है ?, “क्योंकि उसमें डैने जैसे अंग (मीन पक्ष) होते हैं।” पापा ने बताया। इतने में एक सांप तैरते हुए आया। बबली फिर प्रश्न कर बैठी,” यह क्या? यह भी तैर रहा है।” यह क्यों तैर रहा है, पापा ? इसमें तो डैने जैसे अंग (मीन पक्ष-Fin) नहीं हैं, फिर क्यों——? पापा एकदम से निरुत्तर हो गए । बच्चे विशिष्ठ प्रश्न करते हैं, जो असीम ज्ञान का परिचायक होता है। बच्चे अद्भुत एवं अतुल हैं, जिसके अंदर काफी संभावनाएं होती हैं। बच्चे हमारे आकलन से भी ऊपर के स्तर के होते हैं। वे आस-पास की चीजों को समझने का प्रयास करते हैं। वे अपने रुचिकर अनुभव को जारी रखते हैं। वे चीजों को परिचालित कर उन्हें परिभाषित करते हैं और दुनिया को समझने का प्रयास करते हैं।
   बच्चों का दिमाग एक वैसे ब्लैडर जैसा होता है, जिसमें जितने भी पानी भरे जाएं, वह फटता नहीं।  2 से 7 वर्ष की आयु ज्ञान के निर्माण के लिए अहम होता है। यह अवस्था मानव जीवन का आधार है। जीवन के प्रथम 5- 6 वर्षों में शरीर और  मस्तिष्क अत्यंत ग्रहणशील रहते हैं। इस अवस्था में बच्चों को जो कुछ भी सिखाया जाता है या कराया जाता है, बच्चे के ऊपर अमिट प्रभाव पड़ता है। शारीरिक ( लंबाई और भार) एवं मानसिक विकास में तीव्र वृद्धि होती है। खोजबीन की जिज्ञासा काफी होती है। इस अवस्था में बच्चे के दिमाग में सकारात्मक बातें डालने का मूर्त प्रयोग करना चाहिए, जिससे वे तार्किक ढंग से भी चीजों को समझ सकें और यही अच्छी समझ जीवन को सफलता की ओर ले जायेगी। वे ज्ञान का सृजन भी करने लगते हैं। विद्यालय में शिक्षक का काम है कि उसके ज्ञानवर्धन में सहज मोड़ दें। शिक्षकों या अभिभावकों को इस अवस्था में खेलने का आनंद का माहौल देना चाहिए।  वे सहपाठियों के साथ अंतः क्रिया करते हैं और हमउम्र से अपने ज्ञान का आदान-प्रदान भी करते हैं। एक दूसरे से अनायास भी सीखते रहते हैं। वे बड़ों का जबरदस्त नकल भी करते हैं। बड़ों से प्रश्नों की बौछार भी करते हैं। बड़े कभी-कभी उनके प्रश्नों के उत्तर देने में नाकाम रहते हैं। बच्चों को बोलने का भरपूर अवसर दें। बड़े उनसे विचारों का सहज आदान- प्रदान करें। विद्यालय आने के बाद  करीब-करीब 2 वर्ष के अंदर गणित, भाषा की अच्छी जानकारी हो जाती है। यदि शिक्षक 5-7 वर्ष की आयु के अंदर प्रभावी शिक्षण-अधिगम करें तो बच्चे आसानी से वाक्यों, अनुच्छेदों और लघु कहानियों को पढ़ना सीख लेंगे। बच्चे समूह में कविता पाठ अच्छी तरह करते हैं। वे समूह गायन (Chorus) के द्वारा कविताओं को कंठस्थ कर लेते हैं। शिक्षक विद्यालय में कविता या गाने को हाव-भाव (Proper Action) में बच्चों के साथ जब गाते हैं तो बिना शब्दार्थ बताए ही वे उसके मतलब निकाल लेते हैं।
   बबली 4 वर्ष की थी तो उसका एक भाई पैदा हुआ। वह बहुत खुश थी। एक अच्छा जीवंत खिलौना उसे जो मिल गया था। माँ-बाप बहुत खुश थे। मोहल्ले और रिश्तेदारों में मिठाइयां बांटी गई, वह मंगतू जो था। उन्हें बड़ी ख्वाहिश थी कि एक लड़का पैदा हो। छठ्ठी में उसके आंटी तरह-तरह के कपड़े लाई। आंटी ने ही इस बच्चे का नाम बंटी रखा। हॉस्पिटल में बंटी को इस संदेह के आधार पर दूध पिलाने से मना किया गया कि मां को हेपिटाइटिस है। नेगेटिव रिपोर्ट आने तक तो उनकी मां का दूध दवाई से सुखा दिया गया था। बंटी को अब डब्बे के दूध से ही पाला जाने लगा। बबली अपनी गोद में बंटी को लेकर बोतल से दूध पिलाती। कभी-कभी दूध नाक-मुंह, दोनों में उड़ेल देती। माँ उसे मार-पिटाई कर देती। बंटी तो एक शिशु था। उस पर मां का ध्यान ज्यादा रहता। पापा भी उसे बहुत प्यार करने लगे। अब तो बबली को कुछ जलन होने लगी कि मम्मी-पापा अब हम पर कम ध्यान देते हैं। 
    बच्चों का पहला पाठशाला मां की गोद है, उसके बाद ही परिवार या परिवेश। दंपत्ति बबली और बंटी  की देखरेख अच्छी तरह से करते थे। लाड-प्यार के साथ-साथ अच्छी आदतें भी सिखाया करते थे। पानी कैसे पिया जाता है? खाना कैसे खाया जाता है ? बड़ों का सम्मान करो । हालांकि, बच्चों को संस्कार के लिए  बखान नहीं करना चाहिए, बल्कि कुछ ऐसा करना चाहिए कि उसे पता भी न चले और उसके पास संस्कार भी आ जाए। संस्कार उसे बताएं नहीं, बल्कि अभिभावक उनमें संस्कार लायें। अभिभावक स्वयं संस्कारी बने, ताकि बच्चे देखकर सीख लें।  
   बबली और बंटी के मिजाज में काफी अंतर था। 3 बरस का बंटी तो शरारत में बबली पर भी भारी निकला। 7 बरस की बबली को काफी तंग किया करता। कभी पानी तो कभी खाना उस पर फेंक देता और कभी कॉपी एवं किताबों पर आड़ी-तिरछी रेखाएं खींचने लगता। वह अक्सर बबली के बाल को नोचते रहता। वह बड़ा खेलंधर था। वह मेले में पापा के साथ जाकर गाड़ी, बंदूक और अन्य खिलौने खरीदता। आंगन में गाड़ी खींचता रहता। किसी पर भी बंदूक को तानकर धड़– धड़ा धड़ाम–धड़ाम करता रहता। उसके पापा बैटरी पर चलने वाला एक कार भी लाए थे, जो रिमोट से चलता था। कार चलाने के लिए दोनों, भाई-बहन में लड़ाई होती रहती। गलती चाहे  जिसकी भी हो, पिटती तो बेचारी बबली ही। बबली को पितृ प्रेम था तो बंटी को मातृ प्रेम। बंटी शैशवावस्था में था, तो बबली पूर्व बाल्यावस्था में। शैशवावस्था को सीखने का काल कहा जाता है।
   बबली अब समझदार होती जा रही थी। उसकी छरहरी काया बंटी से दुगनी हो गई। पापा ने निकट के सरकारी स्कूल में बबली का नाम लिखवा दिया। जहां अच्छी पढ़ाई कर रही थी। पापा भी रोजाना 1 घंटे पढ़ाने के लिए समय निकाल लेते। पापा तरह-तरह के प्रयोग करके सिखाते। दो गिलास लेते -एक छोटा और दूसरा बड़ा। दोनों में पानी भर देते और कहते यह बताओ इसमें ज्यादा पानी किस में है। बबली सही नहीं बता पाती तो पापा उसको सिद्ध करते। एक छोटा गिलास और लाते। बड़े गिलास का पानी उसमें डाल देते। देखो ! इतना पानी बड़े गिलास में बच गया है, तो ज्यादा पानी किस गिलास में था ? बबली को बात आसानी से समझ में आ जाती। पेंसिल और कलम में कौन बड़ा है ? दूसरी किताबों की मोटाई कम है या ज्यादा ? पेंसिल को कलम पर रखकर, एक किताब को दूसरे किताब के सिरे से सटाकर बता देती कि कलम लंबा है या पेंसिल। कौन-सी किताब मोटी है और कौन-सी पतली। पापा ने उसे दूरी मापने के लिए वित्ता, हाथ और कदमों का इस्तेमाल बताया था। इस तरह वह दूरियों को माप लेती। 
   पापा के साथ जब टहलने जाती। पीपल, सहजन, बरगद, जामुन के पत्ते और गुलाब, चमेली, जूही के फूल बगीचे से लाती। पापा पीपल के पत्ते को कॉपी पर रखकर पत्ते के किनारे से खींचकर पेंसिल से खिंचवाते। किसी तरह से बबली ड्राइंग कर लेती। पीपल और जामुन के पत्ते को तो आसानी से ड्राइंग कर लेती। लेकिन नीम और इमली को देखकर बनाना पड़ता था। जिसे पापा बनाते थे, फिर उसे देखकर बबली बनाती। पत्तियों को हरे रंग और फूलों को वैसा ही फूल से ही रंगती।  फूलों से ही फूल वाले ड्राइंग को रंग लेती और और सेम के पत्ते से हरी पत्तियों को रंग  लेती। धीरे-धीरे अच्छा चित्र बनाने लगी। इसे दीवारों पर यहां-वहां साट देती और गर्व से उसे देखती। मालूम हो कि 3 वर्ष की उम्र से ही बच्चे चित्र बनाना प्रारंभ कर देते हैं। बच्चों की चित्रांकन मुख्य रूप से तब घटित होते हैं जबकि वे किसी वस्तु की सीमाओं को प्रदर्शित करने के लिए रेखाओं का उपयोग करते हैं। शिक्षक को शुरुआती दौर में चित्रांकन पर विशेष ध्यान देना चाहिए। चित्र बनाते-बनाते उसमें चित्रांकन-कौशल आ जाता है। चित्रांकन शिक्षण-अधिगम की अगली प्रक्रिया में सहायक होता है। 
   बबली अपने घर के ईंट की दीवारों पर शब्दों और वाक्यों को लिखती रहती। पापा भी मोटे-मोटे अक्षरों में कुछ लिख देते, जिसे देखकर बबली लिखने का प्रयास करती। बच्चों के अंदर यह प्रवृत्ति होती है कि जब भी वे कुछ लिखना सीखते हैं तो उसे दीवारों या जमीन पर या कहीं भी उसे लिखते रहते हैं। ‘फूलकुमारी’ और ‘अब्बू खां का बकरा’ पढ़ लेती। ‘ अब्बू खां का बकरा’ (डॉ जाकिर हुसैन ) और ‘ क्योंजीमल कैसे कैसलिया’ (सुबीर शुक्ला) पढ़ने में उसे बहुत मजा आता है। वह पढ़ कर उसे सुनाती। चल चित्र देख कर कुछ अपनी कहानी गढ़ लेती- गाय के सींग बैल में और बैल के सींग गाय में। 
   बच्चे यह सोचते हैं कि सभी लोग वैसा ही सोचते हैं, जैसा हम सोचते हैं। बबली को रंग-बिरंगी तितलियों को पकड़ने में बहुत मजा आता था। वह इसके पूंछ में धागे बांधती और उसे उड़ाती। पापा उसे छोड़ देने के लिए कहते ताकि वह मर न जाए। खूबसूरत तितलियों को शीशे की बोतल में भी बंद कर देती। लेकिन पापा के कहने पर वह तितलियों को फिर उड़ा देती।
    बबली पापा से कागज के फूल, पत्ती, नाव, जहाज और गेंद बनाने के लिए सीख ली। जहाज को उड़ाती और गेंद को अपने हमउम्र ‘कार्टून’ के साथ खेलती। कार्टून बड़े चाचा का लड़का है जो बड़ा ही चुलबुलिया है। उसे मिट्टी के गोली खेलने का बहुत शौक था। मिट्टी की गोली वह खुद ही बनाता। वह कुम्हार के यहां से छोटी-छोटी प्यालियां लाता और उससे अपने पापा की मदद से तराजू बनाता और खरीद-बिक्री का खेल खेलता। उस व्यवसाय में बबली की भी हिस्सेदारी रहती। उसके खुद के बनाए हुए मिट्टी के खिलौने बबली छीन लेती। पापा दोनों की लड़ाई को छुड़ाते। कार्टून मिट्टियों के खिलौने बनाता और उसे सूखने पर फिर उसे आग में पका लेता, जिससे वह टेरी कोटा की तरह बन जाता।
  पापा रुमाल से चूहे बनाकर तीनों को खूब डराते और  हंसाते। उनके पास चूहे उछालने की ऐसी कला थी कि मानो, सचमुच चूहे कूद पड़े । शुरू में वे लोग डर जाते फिर हंस पड़ते। खेल तो बच्चों की अभिरुचि होती है, उसे खेल-खेल में सीखाने का प्रयास किया जाना चाहिए। बच्चों को सामग्री आधारित शिक्षण देना चाहिए।

मो. ज़ाहिद हुसैन
प्रधानाध्यापक
उ. म. वि. मलह विगहा
चंडी,नालन्दा

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