छाँव की पंचायत- सुरेश कुमार गौरव 

गर्मी की तपती दोपहर थी। खेतों के किनारे सात-आठ वृक्षों के झुंड छाया बिखेर रही थी। उनकी शाखाएँ ऐसे फैलीं मानो प्रकृति ने अपना आँचल फैला दिया हो। उसी घनी छाँव में कुछ चारपाइयाँ बिछी थीं और उन पर बैठे थे गाँव के बुज़ुर्ग – पगड़ी पहने, धोती में सजे, चेहरे पर अनुभव की रेखाएँ और आँखों में अपनापन।

चाय की केतली पास ही एक पत्थर पर रखी थी। एक बुज़ुर्ग धीरे से बोले, “यही जगह तो असली दरबार है। न शोर, न दिखावा, बस मन की बात और प्रकृति की छाया।”

दूसरे बोले, “जब हमारे बाबा जी थे, तब भी यही वृक्ष थे। हम बच्चों की तरह खेलते थे इनकी छाँव में। आज भी वही सुख मिलता है यहाँ।”

पास ही बैठा किशोर रामू ध्यान से सब सुन रहा था। उसके मन में कई सवाल थे। वह बोला, “दादा जी, ये पेड़ तो बहुत बूढ़े लगते हैं, लेकिन फिर भी ये इतना सुकून क्यों देते हैं?”

दादा जी मुस्कराए, “बेटा, जो जीवन भर देता है, वह बूढ़ा नहीं होता बल्कि वह तपस्वी होता है। ये पेड़ गाँव की आत्मा हैं।”

रामू की आँखों में चमक थी। उसने निश्चय किया – “मैं भी एक पेड़ लगाऊँगा, ताकि सालों बाद मेरी छाँव में भी कोई पंचायत लगे।”

वृक्षों की पत्तियाँ जैसे हवा में मुस्कराईं। एक नई पीढ़ी ने वृक्षों से संवाद जो कर लिया था।

सुरेश कुमार गौरव, प्रधानाध्यापक

उ.म.वि.रसलपुर, फतुहा, पटना (बिहार)

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