धूप में देवता-संजीव प्रियदर्शी

 धूप में देवता

          रघु बारह हजार रुपये पत्नी लखिया को देते हुए बोला – “रख ले ये रुपये। फ़सल के दाम हैं।”

लखिया नोटों की गड्डी देखकर हुलस गई पर यह जानने के लिए कि रुपये कितने हैं, उसने पति से पूछा- -“कुल कितने रुपये हैं?”
रघु- ” बारह हजार।”
लखिया अचरज से- ” सिर्फ बारह हजार ! और रुपये? तुमने तो कहा था तीस मन मक्का हुआ है? ”
रघु झिझक कर बोला – ” तीस मन के ही तो दाम हैं।
पति की बात सुन लखिया आश्चर्य मिश्रित रोष में बोली – “सिर्फ चार सौ रुपये मन! यहां कोई मुफ़्त का माल था जो तुमने पानी के भाव लुटा आये। ख़ून जलाकर अन्न पैदा हम करें और मुनाफा व्यापारी-पूँजीपति खाये! इतने में तो लकड़ी-कोयले भी नहीं मिलते हैं। व्यापारी से कहो, नहीं बेचने हैं हमें मक्का।”
लखिया का क्रोध जायज था,पर रघु भी विवश था। टूटकर बोला – “मैं क्या करता। जबसे फ़सल तैयार होने को हुई, जोतदार, पानीदार और खाद-बीज वाले महाजन सिर चढ़ बैठे हैं। फिर व्यापारी इससे अधिक दाम देना भी नहीं चाहते। कहता है इतना ही काफी है। फैक्टरी वाले इससे ज्यादा देने को तैयार ही नहीं है। उचित लगे तो बेचो अन्यथा घर में रखो।”
पति की बात सुन लखिया की आँखों में आँसू आ गये। पिछले साल ओला-तूफान से हुए फ़सल नुकसान की भरपाई भी अभी नहीं हो पाई थी।
जबसे लखिया को मालूम हुआ था कि इस बार फ़सल अच्छी हुई है, वह फूले नहीं समाती थी। उसने सोच रखा था कि इस बार उसके सारे दुख दूर हो जाएंगे। मक्का के रुपये से अपने लाडले मंगल और पुत्री सोनबतिया को बढ़िया कपड़े खरीद देगी। बेचारे पैवंद पहनते-पहनते उब गये हैं। वह भी तांत की एक साड़ी खरीद लेगी। शादी के बाद कहां सुदिन देखने को मिले हैं, उसे। और मंगला के बप्पा को ठीकेदार के भट्टे पर काम करने हरगिज नहीं जाने देगी़ वह। निगोड़े मजूरी देने पहले शरीर का सारा लहू निचोड़ लेता है। लेकिन यहां तो सारे अरमानों पर पानी फिर चुके थे। वह मन ही मन उधार जोड़ने लगी। दो हजार जोतदार, तीन हजार पानीदार, पांच हजार खाद-बीज और दो हजार साहूकार का पिछला बकाया। यानी सब रुपये तो महाजन के ही हो गये। सोचकर अपना सिर पकड़ लिया।
अगले दिन सभी महाजन कलेजे पर चढ़कर रुपये ले गए थे।
रघु को अब कुछ सूझ नहीं रहा था कि आगे उसका घर कैसे चलेगा। अगली सुबह उसने ठेकेदार के भट्टे पर जाने का फैसला कर लखिया से कह रहा था- “मंगल और सोनबतिया से कह देना, अभी चीथड़े पर ही काम चला ले। मजूरी के रुपये मिलते ही दोनों को नये कपड़े खरीद दूंगा।”
पति के दर्द को जान लखिया भीतर तक सिहर उठी। अब उसमें पति को भट्टे पर जाने से रोकने की हिम्मत नहीं बची थी।

संजीव प्रियदर्शी
( मौलिक )
फिलिप उच्च माध्यमिक विद्यालयबरियारपुर  

जिला- मुंगेर

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One thought on “धूप में देवता-संजीव प्रियदर्शी

  1. Nice story… इसे और विस्तृत बने जा सकता था। अंत और मार्मिक बनाए तो और कहानी बेहतर होगी

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