फणीश्वरनाथ रेणु-हर्ष नारायण दास

Harshnarayan

फणीश्वरनाथ रेणु

          एक सफल साहित्यकार, कुशल कलाकार, जनप्रिय नेता, आदर्श समाजसेवी, राष्ट्रभक्त क्रान्तिकारी, आत्मविश्वासी फणीश्वरनाथ रेणु का जन्म 4 मार्च 1921 शुक्रवार को बिहार राज्य के वर्त्तमान अररिया जिला में फारबिसगंज से 10 किलोमीटर दूर सिमराहा रेलवे स्टेशन के निकट हिंगना औराही नामक गाँव में हुआ था। उनके पिता शिलानाथ मंडल एक सम्पन्न किसान थे। उनके माता का नाम पानो देवी था। जिस वर्ष रेणु जी का जन्म हुआ, उसी वर्ष एक बड़े फौजदारी मुकदमे के सिलसिले में परिवार में पहली बार ऋण हुआ इसलिए प्यार से इनकी दादी और माँ ने ‘रिनवा’ कहकर पुकारा। रिनवा से रिनु, फिर नेपाल के श्री कृष्ण प्रसाद जी कोइराला जी ने इनका नाम रेणु लिखा। उनके पिता की इच्छा उन्हें वकील बनाने की थी लेकिन रेणु जी सिमराहा स्टेशन का स्टेशन मास्टर बनना चाहते थे। रेणु जी के साहित्यिक जीवन की शुरुआत सिमरबनी स्कूल से हुई। वे तीन भाई और पाँच बहनें थी।

रेणु जी के तीन विवाह सम्पन्न हुए थे। प्रथम विवाह रेखा देवी के साथ हुआ। 1949 में रेणु जी का दूसरा विवाह कटिहार के महमदिया ग्राम के निवासी खूबलाल विश्वास की विधवा पुत्री पद्मा जी से सम्पन्न हुआ। प्रथम पत्नी से एक पुत्री कविता राय, पद्मा जी से तीन पुत्र हैं- पद्मपराग, अपराजित और दक्षिणेश्वर। रेणु जी का तीसरा विवाह लतिका जी से हुआ। लतिका जी पटना मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल में नर्स थीं। रेणु जी 1944 में जबलपुर जेल से एक कैदी के रूप में अपने सहयोगियों के साथ पटना हॉस्पिटल भेजे गए थे।

रेणु जी के एक जिगरी और जिद्दी मित्र थे जो गीतकार थे, नाम था शैलेन्द्र। शायद उन्होंने इनके लिए ही सीमा फ़िल्म का सुन्दर सा गीत “तू प्यार का सागर है, तेरी इक बूँद के प्यासे हम। लौटा जो दिया तुमने, चले जाएंगे जहाँ से हम।।” बेसुध पड़े रेणु की मासूमियत और करुण पुकार को सुन लतिका जी प्यार का सागर बन उनके जीवन में आई। उसके प्यार की बूँदों ने रेणु को नवजीवन दिया। नवजीवन मिलना, पुनः बीमार होकर अस्पताल में भर्ती होना और फिर लतिका की सेवा-सुश्रुषा से स्वस्थ होने की घटना ने इस संबंध को आत्मीय बना दिया। रेणु और लतिका का प्यार अशरीरी था अर्थात प्लेटोनिक लव। रेणु और लतिका जी की शादी 5 फरवरी 1952 को वर्तमान झारखण्ड राज्य के हजारीबाग स्थित कुर्रा मुहल्ला में हुई थी। यह शादी समय की सामाजिक मर्यादाओं को तोड़ती है और नारी स्वतन्त्रता की नई मिसाल पेश करती है।

स्वार्थ से परे समर्पण की यह प्रेम-कहानी स्त्री संघर्ष की वह दास्तान है जो भारतीय प्रेम के दर्शन को शत-प्रतिशत सत्यापित करती है। दरअसल रोगी रेणु से शादी करने के फैसले को लेकर लतिका के परिजनों ने विरोध किया था। लेकिन कुलीन बंगाली ब्राह्मण परिवार की लतिका तमाम विरोधों के वावजूद अपने फैसले पर अडिग रही। उनकी शादी विजय कुमार चटर्जी नामक डॉक्टर के साथ लगभग तय हो चुकी थी। उनके घरवाले लतिका से इस संबंध में बात करने ही वाले थे कि इसी बीच उन्होंने घरवालों को अपना फैसला सुना दिया। लतिका का यह फैसला परिजनों को स्वीकार नहीं हुआ। लतिका के परिवार का संस्कार अभिजात्य था। जहाँ समाज सामाजिक रूढ़ियों का गुलाम था, उनका परिवार भी इससे अछूता नहीं था। उनके बड़े भाई सुशील राय चौधरी अपने घर की “लाडली मोकी” अर्थात लतिका के फैसले से असमंजस में पड़े थे। उनके विरोध का मुख्य कारण था रेणु का रोगी होना। बड़े भाई होने के नाते उन्होंने लतिका को समझाया। जीवन में आने वाली विपत्तियों से अवगत कराया। वैध्वयता के खतरों का भी एहसास कराया। भविष्य के भय ने भी लतिका को भयभीत नहीं किया और वह अपने फैसले पर अडिग रही। उनके दिल में रेणु के लिए उपजी ममता और त्याग, जिस संबल के सहारे लतिका अपने परिजनों से प्रेम का धर्म युद्ध लड़ रही थी, जिसका अंतिम मुकाम भी संघर्ष ही था। लतिका आर्थिक रूप से स्वावलंबी थी। घरवाले भी लतिका के जिद और साहस से परिचित थे। अंततः घरवाले ने लतिका की बात मान ली। स्वाभिमानी प्रकृति की लतिका ने घरवालों को अपनी शादी में खर्च करने से मना किया। नौकरी की कमाई से अर्जित पैसे को शादी में खर्च करने का निर्णय लिया। रिश्तेदारों एवं दोस्तों को निमंत्रण देने का काम लतिका ने पत्र के द्वारा पटना से ही कर लिया। शादी के लिए सामानों की खरीदारी स्वयं पटना में ही किया। शादी की पूरी तैयारियों के साथ वह रेणु को साथ लेकर पटना से हजारीबाग चली आई। हजारीबाग पहुँचते ही लतिका शादी की तैयारियों में स्वयं जुट गई। आजादी के तुरन्त बाद समाज और देश के बदलते परिवेश में लतिका जी का यह फैसला नारी स्वावलंबन को बल देता है और नारी स्वतंत्रता के संघर्ष को नई दिशा प्रदान करता है। काश! यहाँ की लड़कियाँ लतिका जी से शिक्षा लेकर स्वावलंबन की सार्थकता को सच साबित करते हुए अपने अंदर आत्मविश्वास को जगाती तो शायद वर्त्तमान समाज बेटियों को 21 वीं शताब्दी में बोझ समझने की भूल नहीं करता। स्वावलम्बी लतिका चुनौतियों को सहर्ष स्वीकार करने वाली थी। घर में हर्ष और विषाद का माहौल था। शादी की तैयारियों से घर में हर्ष का माहौल था। वहीं दूल्हे राजा रोगी रेणु की गंभीर हालत खुशी के माहौल को गमगीन बना रही थी। शादी के माहौल में भी लतिका का ध्यान रेणु पर ही केंद्रित रहता था। वो खून की उल्टियाँ कर रहे रेणु की सेवा भी करती थी। समय पर दवा खिलाती थी। वहीं शादी के विधि-विधान में भी अपनी भूमिका निभाती थी। शादी के वक्त मण्डप में रेणु को किसी तरह लतिका के साथ दीवाल के सहारे बिठाया गया। सहारा देकर किसी तरह रेणु से शादी की रस्में पूरी करवाई गयी। रेणु को सहारा देने का काम उनके दोस्त पाठकजी और सुरपति झा निभा रहे थे। ये दोनों दोस्त लतिका और रेणु की शादी का साक्षी बनने पटना से हजारीबाग आए थे। जयमाला के वक्त रेणु इन्हीं दोस्तों के सहारे खड़ा हो कर अपनी पत्नी लतिका के गले में वरमाला डाला। बंगला रीति रिवाज के अनुसार शादी के बाद जब लड़की ससुराल पहुँचती है तो लतिका और रेणु की शादी के उपलक्ष्य में बहु-भात की रस्म भी लतिका के घर में ही निभाई गयी थी। इसमें रेणु के दोस्तों ने अहम भूमिका निभाई थी। इस रस्म में खीर और मछली के पूँछ का हिस्सा सहित अन्य व्यंजन के साथ कपड़े को थाल में रखकर सजाया जाता है। सजे थाल को रेणु के हाथ में दिया जाने लगा तो उसे लतिका ने अपने हाथों में ले लिया। इस घटना को देखते ही सभी लोग अचंभित हो गए। दरअसल सजे थाल को रेणु को अपने हाथों से लतिका को देते हुए बोलना था कि “आज थेके तोमार भात-कापोड़ेर भार निलाम।” लेकिन रेणु की आर्थिक और शारीरिक स्थिति को देखते हुए लतिका जी ने उस थाल को अपने हाथों में लिया और रेणु के हाथों में सौंपते हुए उस शपथ को ली, जिसे सामाजिक रीतियों के अनुसार रेणु को लेना था लेकिन लतिका जी ने उन रूढ़ियों को भी तोड़ा जो प्रेममय जीवन में स्वार्थ की जड़ों को मजबूत करता है। लतिका जी का यह कदम रिश्ते की रेशमी डोर को सिर्फ स्वार्थ से परे ही नहीं बनाता है। भारतीय समाजवाद की परिभाषा को जीवंत करने वाली लतिका और रेणु की प्रेम और शादी की कथा सुनने के बाद ही शैलेन्द्र ने इस गीत को लिखा होगा-
“किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार,
किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार,
किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार,

जीना इसी का नाम है!”

लतिका जी का समर्पण ही रेणु की प्रेरणा है और उस प्रेरणा का प्रतिफल है कालजयी रचना “मैला आँचल”। अप्रतिम गद्य शिल्पी के रूप में विख्यात फणीश्वरनाथ रेणु बहु-आयामी प्रतिभा सम्पन्न रचनाकार हैं। उन्होंने छह उपन्यास- मैला-आँचल, परती परिकथा, दीर्घतपा या कलंकमुक्ति, जुलूस, कितने चौराहे और पलटू बाबू रोड लिखे।
कहानी संग्रह में- ठुमरी जिसमें नौ कहानियाँ हैं; रसप्रिया, पंचलाइट, ठेस, तीर्थोदर्शक, नित्यलीला, सिरपंचमी का शगुन, तीसरी कसम, अर्थात मारे गए गुलफाम, लाल पान की बेगम, तीन बंदियाँ
दूसरा कहानी संग्रह- आदिम रात्रि की महक(1967) इस कहानी संग्रह में ज्यादातर कहानियां समाज में फैले हुए भ्रष्टाचार एवं कुप्रवृत्तियों पर प्रकाश डालती है ।
रेणु का तीसरा कहानी संग्रह है- अग्निखोर।
चौथा कहानी संग्रह है- “एक श्रावणी दोपहरी की धूप।”

रिपोर्ताजों में श्रुत अश्रुत पूर्व, वन तुलसी की गंध,
रेणु जी पंडित रामदेनी तिवारी “द्विजदेनी” को गुरु मानते हैं। उनका कहना है कि उनकी रचना “भैया जी की घोड़ी” ने ही मुझे लिखने की प्रेरणा दी है। डब्ल्यू जी० आर्चर, शोलोकोव और प्रेमचंद से प्रभावित हुए थे। उन्होंने सतीनाथ भादुड़ी को अपना साहित्यिक गुरु माना है। रेणु जी को बचपन से ही रात में जगने की आदत थी। वे बुढ़ापे से बहुत डरते थे। चाय पीने के बड़े शौकीन थे। कुत्तों के प्रति भी उन्हें बेशुमार प्रेम था। रेणु जी को लम्बे बाल पसन्द थे। वे कीमती और उम्दा चीज़ों का इस्तेमाल करना जानते थे। मैथिली और भोजपुरी के पचासों लोकगीत उन्हें याद थे।
रेणु का व्यक्तित्व बचपन से ही मतवाला रहा है।

1972 में फारबिसगंज से निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में विधानसभा का चुनाव लड़े थे लेकिन हार गए थे। वे बहुत भावुक व्यक्ति थे। रेणु जी ने अपने 56 वर्ष के जीवन में ही कितने पहलुओं को छुआ और उनमें सफलता प्राप्त की। उन्होंने अपने अनुभवों के आधार पर बताया है कि जीवन को संघर्ष मानते रहने का सत्परिणाम मेरी सफलता का कारण है। जहाँ संघर्ष की समाप्ति हो जाती है, जीवन का अंत वहीँ पर ही हो जाता है। उन्होंने इसे केवल कहा ही नहीं है बल्कि अपने जीवन में करके भी दिखाया।

11 अप्रैल 1977 को रेणु जी अपनी जीवनयात्रा पूर्ण कर संसार से चले गए लेकिन उनके कर्त्तव्य सदा ही उनके नाम को याद दिलाते रहेंगे।

हर्ष नारायण दास
फारबिसगंज अररिया 

नोट- उपरोक्त ऑंकडे़ एवं विचार लेखक के स्वयं के हैं। 

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