महान गणितज्ञ पाइथागोरस
पाइथागोरस का जन्म छठी शताब्दी ईशा पूर्व यूनान के पास सामोस नामक टापू में हुआ था।संभवतः वे महात्मा बुद्ध और स्वामी महावीर के समकालीन थे। बाल्यकाल से ही पाइथागोरस बड़े प्रतिभाशाली थे।16 वर्ष की आयु में ही इस बालक की प्रतिभा इतनी उचाईयां ले चुकी थी कि इसके प्रश्नों के उत्तर देने से शिक्षक विचलित हो उठते थे। अतः उन्हें वेल्स ऑफ मिलेट्स की देख-रेख में अध्ययन के लिए भेजा गया। उन्हीं के साथ पाइथागोरस ने अपनी विश्वविख्यात प्रमेय का सूत्रपात किया। साथ ही प्रमेय का प्रयोगात्मक प्रदर्शन भी किया। उन्होंने ही ज्यामिति के प्रमेयों की उत्पत्ति प्रणाली की नींव डाली। उन दिनों अध्ययन के लिए पुस्तकें उपलब्ध नहीं होती थी। इसलिए विद्यार्थियों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाकर विद्वानों से सम्पर्क करना पड़ता था। ज्ञानार्जन की तलाश में 30 वर्षों तक पाइथागोरस ने फारिस, बेबीलोन, अरेबिया और यहाँ तक कि भारत का भी भ्रमण किया। पाइथागोरस ने कई वर्ष मिश्र में गुजारे जहाँ उन्होंने संगीत और गणित के बीच में सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयत्न किया। उनकी इच्छा थी कि एक विद्यालय की स्थापना कर लोगों को पढ़ा सके। ईशा से 532 वर्ष पूर्व उन्हें सामोस के अत्याचारी शासन से छुटकारा पाने के लिए इटली भागना पड़ा। वहाँ उन्होंने 529 ईसा पूर्व में क्रोटोन में एक विद्यालय की स्थापना की।यह विद्यालय मुख्य रूप से एक धार्मिक संस्थान था जहाँ लोगों को परस्पर समझने का अवसर दिया जाता था। यहाँ मुख्य रूप से चार विषय पढ़ाए जाते थे। अंकगणित, ज्यामिति, संगीत और ज्योतिष विज्ञान साथ ही यूनानी दर्शन की भी शिक्षा दी जाती थी। पाइथागोरस का विचार था कि मनुष्य को पवित्र जीवन व्यतीत करना चाहिए। उनका विश्वास था कि पवित्र जीवन द्वारा ही आत्मा को शरीर के बंधनों से मुक्त किया जा सकता है।
किसी प्रकार के दबाव या गुलामी को वे कतई पसन्द नहीं करते थे। उन दिनों यूनान में गुलाम रखने की प्रथा प्रचलित थी और उसे कानूनी मान्यता भी प्राप्त थी। धनी परिवार में विरासत के रूप में उन्हें मिले हुए सभी गुलामों को उन्होंने मुक्त कर दिया था। उनकी करुणा न केवल मानव तक ही सीमित थी बल्कि प्राणिमात्र के लिए उनका हृदय करुणा बरसाता रहता था। वे मानते थे कि मानव और पशु में अन्तर केवल इतना ही है कि मानव को विवेक बुद्धि प्राप्त है जो पशुओं के पास नहीं है अन्यथा दोनों एक ही परमात्मा की सन्तान है।
पाइथागोरस के निम्न विचारों को ध्यान में रखा जा सकता है। अहिंसक व्यवहार से शत्रुओं को भी मित्र बनाये। हर तरह की परिस्थिति में तथा हर बात पर शान्त सन्तुलित मन से विचार करें। चित्त की शान्ति कभी न खोयें। मित्रों के दोषों की अत्युक्ति न करें।किसी को बदनाम न करें। अपने को बदनाम करने वालों से बदला न लें। बुराई का बदला भलाई से दें।क्रोध, अहंकार तथा स्वार्थ से बचें। हर रात सोते समय सोचें-आज मैंने कौन सा अच्छा काम किया? मुझसे क्या गलतियाँ हुई? कौन सा कर्त्तव्य निभाने में असमर्थ रहा? हमेशा भलाई करने की आदत डालनी चाहिये। इससे आत्म विश्वास के द्वारा आप उस मार्ग पर पहुँचेगे जो आपको मानवीय कमजोरियों से दूर ले जाएगा। सच्चा-आनन्द औरों की सेवा करने में तथा उनके जीवन में सुख लाने में हैं। आत्मा की आवाज के निर्देश को हमेशा मानें। आत्मा की आवाज सुनना कठिन नहीं है अगर हम धीरज से सुनना चाहें। इससे आप जीवन के एक अच्छे स्तर पर पहुँच सकते हैं तथा ईश्वर की तरह अनन्त और अविनाशी बन सकते हैं। जीवन भर पाइथागोरस का यही प्रयास रहा कि चित से अज्ञान हटे और शरीर से रोग मिटे। सत्य, प्रेम, करुणा के पथ पर चलने से अज्ञान हट जाता है तथा सरल प्रमाणिक जीवन एवं प्राणि मात्र की सेवा से शरीर के रोग मिट जाते हैं।
80 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हो गई। मृत्यु के बाद भी प्लेटो जैसे महान दार्शनिकों तक पर भी उनके विचारों का अत्यधिक प्रभाव पड़ा। उनकी मृत्यु के 200 वर्ष बाद रोम के सीनेट में विशाल मूर्ति बनवाई गई और इस महान गणितज्ञ को यूनान के महानतम बुद्धिमान व्यक्ति का सम्मान दिया गया। ऐसे महान गणितज्ञ को कोटिशः नमन।
हर्ष नारायण दास
मध्य विद्यालय घीवहा
फारबिसगंज (अररिया)