संत शिरोमणि रविदास जी
सर्व विद्या धर्म की नगरी और भारत की सांस्कृतिक राजधानी वाराणसी को दुनिया के सबसे प्राचीन नगरों में से एक होने का दर्जा प्राप्त है। वरुणा और असी नदियों के नाम से उपजा वाराणसी जिसे प्राचीन में काशी और मुगल काल खंड में बनारस जैसे नामों से पुकारा गया। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार काशी बाबा भोलेनाथ के त्रिशूल पर टिकी है जहाँ भगवान शिव की जटाओं से निकलकर मधुर तरंग के साथ माँ गंगा कल-कल करती बहती है। माँ गंगा का पावन तट प्राचीन काल से संतो महात्माओं का सबसे प्रिय स्थल रहा जहाँ न जाने कितने तपस्वियों और साधकों ने माँ गंगा की भक्ति में अपना जीवन समर्पित कर दिया। आज माघी पूर्णिमा के अवसर पर मुझे एक ऐसे गंगा भक्त पर लिखने की इच्छा जागृत हुई जिसे प्राचीन काल ने संत शिरोमणि की उपाधि से नवाजा।
बनारस के निकट एक गांव में अवतरित संत रविदास का जन्म माघी पूर्णिमा के दिन हुवा था। संत रविदास को मानने वाले लोग इस दिन वाराणसी पहुँचकर अपने गुरु का स्मरण और उनके चरणों मे शीश झुकाकर अपनी हाजिरी लगाते है। आज मैं संत रविदास जिन्हें लोग रैदास भी कहते हैं, उनके कुछ रोचक प्रसंग को आप सभी के बीच रखने की कोशिश करूंगा। रैदास बाल काल से ही भक्ति भाव में लीन रहते थे। घर का कार्य नहीं करने के कारण उनके पिता उनसे बहुत नाराज रहते। पिता ने एक दिन उन्हें घर से निकाल दिया। घूमते-फिरते रविदास गंगा के किनारे पहुँचे जहाँ उन्होंने एक कुटिया में शरण ली।गंगा के घाट पर ही उनकी मुलाकात रामानंद से हुई और वे उनके शिष्य बन गए। गुरु की कृपा से रविदास को भगवत ज्ञान की प्राप्ति हो सकी। सदगुरु रामानंद के बारह शिष्यों में से एक रैदास के जीवन में गंगा से जुड़े न जाने कितने ही आख्यान हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि रैदास के जीवन निर्माण, काव्य सृजन और धर्म-कर्म में गंगा का अप्रतिम महत्व रहा।
एक दिन संत रैदास (रविदास) अपनी झोपड़ी में बैठे प्रभु का स्मरण कर रहे थे। तभी एक राहगीर ब्राह्मण उनके पास अपना जूता ठीक कराने आया! रैदास ने पूछा कहां जा रहे हैं? ब्राह्मण बोला- गंगा स्नान करने जा रहा हूं। जूता ठीक करने के बाद ब्राह्मण द्वारा दी मुद्रा को रैदासजी ने कहा कि आप यह मुद्रा मेरी तरफ से मां गंगा को चढ़ा देना। ब्राह्मण जब गंगा किनारे पहुंचा और गंगा स्नान के बाद जैसे ही कहा- हे गंगे रविदास की मुद्रा स्वीकार करो, तभी गंगा से एक हाथ आया और उस मुद्रा को लेकर बदले में ब्राह्मण को एक सोने का कंगन दे दिया।
ब्राह्मण जब गंगा का दिया कंगन लेकर वापस लौट रहा था, तब उसके मन में विचार आया कि रैदास को कैसे पता चलेगा कि गंगा ने बदले में कंगन दिया है! मैं इस कंगन को राजा को दे देता हूं जिसके बदले मुझे उपहार मिलेंगे। उसने राजा को कंगन दिया, बदले में उपहार लेकर घर चला गया। जब राजा ने वो कंगन रानी को दिया तो रानी खुश हो गई और बोली मुझे ऐसा ही एक और कंगन दूसरे हाथ के लिए चाहिए।
राजा ने ब्राह्मण को बुलाकर कहा वैसा ही कंगन एक और चाहिए अन्यथा राजा के दंड का पात्र बनना पड़ेगा।
ब्राह्मण परेशान हो गया कि दूसरा कंगन कहां से लाऊं? डरा हुआ ब्राह्मण संत रविदास के पास पहुंचा और सारी बात बताई। रैदासजी बोले कि तुमने मुझे बिना बताए राजा को कंगन भेंट कर दिया, इससे परेशान न हो। तुम्हारे प्राण बचाने के लिए मैं गंगा से दूसरे कंगन के लिए प्रार्थना करता हूं।
ऐसा कहते ही रैदासजी ने अपनी वह कठौती उठाई, जिसमें वो चमड़ा गलाते थे, उसमें पानी भरा था। रैदास जी ने मां गंगा का आह्वान कर अपनी कठौती से जल छिड़का, जल छिड़कते ही कठौती में एक वैसा ही कंगन प्रकट हो गया। रैदास जी ने वो कंगन ब्राह्मण को दे दिया। ब्राह्मण खुश होकर राजा को वह कंगन भेंट करने चला गया। तभी से यह कहावत प्रचलित हुई कि ‘मन चंगा, तो कठौती में गंगा’।
भक्ति की एक अनोखी कहानी मीराबाई और संत रविदास के बीच रही। गुरु की तलाश में मीरा ने अंततः अपना गुरु रविदास जी को बनाया और उनके आशीर्वाद से श्री कृष्ण की भक्ति में रम गयी। उनकी भक्ति भावना से चितौड़ राजघराने को यह लगता कि राज्य भर में उनकी प्रतिष्ठा समाप्त हो जाएगी इसलिए मीराबाई को मारने के लिए अलग-अलग तरीके अपनाए गए पर एक भी प्रयास सफल न होता देख राणा बहुत परेशान हो गया। इसके पश्चात् राणा ने मंत्रियों की सलाह के अनुसार मीरा को विष देकर मार डालने की योजना बनाई। मीराबाई को एक विष का कटोरा भरकर गुरु रविदास चरणामृत के नाम से पीने के लिए भेजा गया। ऊदाबाई इस भेद को जानती थी। उसने मीरा को सच्चाई बताते हुए विष पीने से मना किया परंतु मीरा ने कहा जो पदार्थ गुरु रविदास के चरणामृत के नाम पर आया है उसका परित्याग करना गुरुभक्ति के विरुद्ध है। इतना कहकर श्रद्धा के साथ मीरा ने विषपान किया, लेकिन मीराबाई सही सलामत रहीं। ऐसी भक्ति का कमाल देखकर ऊदाबाई भी उनकी सहायक बन गईं। हालांकि बाद में संवत 1603 में द्वारका स्थित रणछोड़ के मंदिर में नाचती गाती मीरा बेहोश होकर गिर पड़ीं और सदा के लिए अपने प्रियतम में समा गई।
कहते हैं कि अपनी शिष्या मीराबाई के आमंत्रण पर संत रविदास चित्तौड़गढ़ आ गए थे लेकिन गंगा-प्रेम उनके हृदय से तनिक भी कम नहीं हुआ। यहीं पर 120 वर्ष की आयु में उन्हें निर्वान मिला। भारतीय सांस्कृतिक जगत में संत रैदास की गंगा भक्ति इतिहास प्रसिद्ध है ।
27 फरवरी 2021 को पूज्य संत शिरोमणि रविदास जी की जयंती पर मैं स्वयं और अपने मित्र गण, मेरे पाठक गण एवं शुभचिंतक साथियों की तरफ से ऐसे संत को बार-बार नमन करता हूं।
मनोज कुमार दुबे ✍️
कॉपीराइट सुरक्षित
Very nice
मंत्रमुग्ध करती रचना 🙏👌👌👌👌
सहृदय आभार आपका
आप सभी का आशीर्वाद मुझे प्राप्त होता रहे ।
Bahut sundar ,prachin samay ki baten aaj ke paripekshya me bhi utni hi satik hai🙏🙏
बहुत ही सुंदर रचना