आलेख
विश्वगुरु भारत
मुकेश कुमार मृदुल
हमारा देश भारत, विविध संपदाओं से परिपूर्ण एक ऐसा गौरवशाली राष्ट्र है, जिसके आगे दुनिया नतमस्तक है। इसके संबंध में जर्मनी के विश्वविख्यात विद्वान फ्रेड्रिक मैक्समूलर ने अपने देशवासियों को संबोधित करते हुए कहा था – ‘‘सर्वविध संपदा और प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण कौन-सा देश है, यदि आप मुझे इस भूमण्डल पर का अवलोकन करने के लिए कहें तो बताऊँगा कि वह देश है – भारत। भारत, जहाँ भूतल पर ही स्वर्ग की छटा निखर रही है। यदि आप जानना चाहें कि मानव मस्तिष्क की उत्कृष्टतम उपलब्धियों का सर्वप्रथम साक्षात्कार किस देश ने किया है और किसने जीवन की सबसे बड़ी समस्याओं पर विचार कर उनमें कइयों के ऐसे समाधान ढूँढ़ निकाले हैं कि प्लेटो और काण्ट जैसे दार्शनिकों का अध्ययन करनेवाले हम यूरोपियन लोगों के लिए भी वे मनन के योग्य हैं, तो मैं यहाँ भारत ही का नाम लूँगा। और यदि यूनानी, रोमन और सेमेटिक जाति के यहूदियों की विचारधारा में ही सदा अवगाहन करते रहनेवाले हम यूरोपियन को ऐसा कौन-सा साहित्य पढ़ना चाहिए जिससे हमारे जीवन का अंतरतम परिपूर्ण, अधिक सर्वांगीण, अधिक विश्वव्यापी, यूँ कहें कि सम्पूर्णतया मानवीय बन जाये, और यह जीवन ही क्यों, अगला जन्म तथा शाश्वत जीवन भी सुधर जाये, तो एक बार फिर मैं भारत ही का नाम लूँगा।’’
भारतीय संस्कृति सदा से आकर्षक रही है। यह इतनी सबल और प्रभावी है कि जिसके कायल पूरब से लेकर पश्चिम तक के देश हैं। यहाँ के आचार-विचार, रहन-सहन को दुनिया अपनाने में अपने को पीछे नहीं रखना चाहती। भारतीयों द्वारा बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक के प्रति किए जाने वाले सम्मान के भाव काफी प्रभावी है। आज जहाँ अन्य देशों में बच्चों को ‘किड्स केयर’ के हवाले कर दिए जाते हैं, बुजुर्गों को ‘ओल्ड ऐज होम’ में जाने को विवश कर दिया जाता है, वहीं भारतीय बच्चों का पालन-पोषण और वृ़द्धों की देख-रेख अपने घरों में, अपनी निगरानी में करते हैं। भारतीयों की यह संवेदना सदियों से विश्व के लिए प्रेरणादायी है। यहाँ के निवासी एक दूसरे से मैत्रीय भाव के साथ मिलते है। अपनापन और भाईचारे के संबंध तमाम मुश्किलों का हल करने में कारगर साबित होता है। इसलिए ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ की दृष्टिकोण में जीते हैं। आगंतुकों के प्रति इनके आतिथ्य भाव में जो श्रद्धा होती है, वह इसके मौलिक गुण हैं। ‘अतिथि देवो भव:’ – यहाँ अतिथियों को देवता समझा जाता है। यह व्यवहार देश के बाहर के व्यक्तियों के मर्म को छू रहा है। यहाँ के व्यक्ति ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के विश्वास में जीवन यापन करते हैं। भारतीयों का यह दर्शन आज विश्व के सारे देश को समुचित सीख प्रदान कर रही है।
विश्व के समस्त देशों को हमारा राष्ट्र ज्ञान और विवेक की सीख देने का कार्य आज से नहीं, बल्कि सदियों से कराता आ रहा है। विश्व के कोने – कोने से ज्ञान पिपासु अपनी प्यास बुझाने के लिए भारत की धरती पर आया करते थे। बिहार का नालंदा विश्वविद्यालय इसके ज्वलंत उदाहरण है। नालंदा हमारे इतिहास में अत्यंत आकर्षक नाम है, जिसके चारों ओर न केवल भारतीय ज्ञान-साधना के पुष्प खिले हैं, बल्कि एक समय में एशिया महाद्वीप के विस्तृत भूभाग का संबध इससे विद्याप्राप्ति के लिए जुड़ गया था। यह स्थल छह सौ वर्षों तक एशियाई महाद्वीप वासियों के लिए चैतन्य केन्द्र के रूप में विख्यात रहा। हिंदी अकादमी दिल्ली के ‘कीर्ति सम्मान’ से सम्मानित प्रसिद्ध कवयित्री निर्मला गर्ग नालंदा का वर्णन कुछ इस प्रकार करती है –
‘‘मैं देख पा रही थी शिक्षा और विद्या का
वह अद्वितीय केंद्र
अध्ययन कर रहे थे जहाँ
देश-विदेश से आए हजारों बौद्ध भिक्षु
कोई न्यायशास्त्र पढ़ रहा था कोई चिकित्साशास्त्र
किसी को व्याकरण का ज्ञान चाहिए था
किसी को आत्मसात करना था धर्मग्रंथों का सार
नागार्जुन, वसुबंधु, दिडनाग, धर्मकीर्ति जैसे अप्रतिम दार्शनिक
तर्क करते आत्मा की नश्वरता पर’’
नालंदा विश्वविद्यालय के अतिरिक्त विक्रमशिला विश्वविद्यालय भी विश्व के लिए उज्जवल दीप बनकर अपना प्रकाश चहुंओर फैलाया और दिक्दिगन्त को प्रकाशमान किया। यहाँ के आचार्यों ने शाश्वत ज्ञान को सामयिक दृष्टि दी और विश्व मानवता को अपने ज्ञान से कृतार्थ किया।
आज, युवाओं के आदर्श बने स्वामी विवेकानंद ने अपने अद्भुत व्यख्यान से पश्चिमी देश अमेरिका में ऐसा धूम मचाया था कि वहाँ के निवासी कई दिनों तक उनको सुनते रहे। उनके दर्शन से अन्य देशों के लोग भी काफी प्रभावित हुए और उनके समक्ष नतमस्तक हो गए। अमेरिका के शिकागो धर्म सम्मेलन के संबंध में साहित्यकार श्वेता राय ने ठीक ही लिखा है –
‘‘अमरीकी भाई-बहनो कह, शुरू किये जब उद्बोधन।
धर्म सभा स्तब्ध हुई थी, सुनकर उनका सम्बोधन।।
आया उस प्राचीन देश से, जो संतो की है नगरी।
पाया हूँ सम्मान यहाँ जो, भरी हर्ष से मन गगरी।।’’
वर्तमान समय में संपूर्ण विश्व के लिए शांति के प्रतीक माने जाने वाले महात्मा बुद्ध ने भारत भूमि से ही अपने ज्ञान की ज्योति अन्य देशों में भेजी थी। आज उनके बताए रास्तों पर चीन, श्रीलंका, जापान जैसे अनेक राष्ट्र चल रहा है। इतना ही नहीं बुद्ध की ज्ञानस्थली बिहार के बोधगया में प्रतिवर्ष दूसरे देश से उनके अनुयायी आकर श्रद्धा के साथ से माथा टेकते हैं। हिंदी साहित्य में हालावाद के प्रसिद्ध कवि डॉ हरिवंश राय बच्चन ने बुद्ध के ज्ञान के प्रभाव का उल्लेख करते हुए लिखा है –
‘‘ध्वनित-प्रतिध्वनित
तुम्हारी वाणी से हुई आधी जमीन
भारत, बर्मा, लंका, स्याम,
तिब्बत, मंगोलिया, जापान, चीन
उठ पड़े मठ, पैगोडा, बिहार,
जिनमें भिक्षुणी, भिक्षुओं की कतार
मुँड़ाकर सिर, पीला चीवर धार
करने लगी प्रवेश
करती इस मंत्र का उच्चार –
‘‘बुद्धं शरणम् गच्छामि,
धम्मं शरणम् गच्छामि,
संघं शरणं गच्छामि।’’
अहिंसा की प्रतिमूर्ति राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने संपूर्ण विश्व में जागरण की आँधी लाकर लोगों को अपने समक्ष नतमस्तक होने के लिए विवश कर दिया था। उन्होंने अपने अहिंसात्मक आंदोलन की करामत संपूर्ण विश्व को दिखाया। अपने अधिकार के लिए दुनिया के कई देशों ने उन्हें अपने यहाँ की समस्याओं को सुलझाने में उनसे मदद माँगी थी। जीवन पर्यन्त जन-जन को मानवता की राह दिखाने के लिए वे अपने शरीर को गलाते रहे। आज वे सत्य और अहिंसा के पुजारी के रूप में विश्व के लिए आदर्श बने हुए हैं। कवि सोहनलाल द्विवेदी ने लिखा –
‘‘युग बढ़ा तुम्हारी हँसी देख
युग हटा तुम्हारी भृकुटि देख,
तुम अचल मेखला बन भू की
खींचते काल पर अमिट रेख’’
भारत भूमि, देवताओं की भूमि के लिए भी जानी जाती है। यहाँ की धरती पर स्वयं देवता मनुष्य रूप में अवतरित हो चुके हैं। यहाँ राम, कृष्ण, महावीर, गुरूनानक आदि का अविर्भाव हुआ है। इनलोगों ने संसार को अपने – अपने समय में श्रेष्ठ जीवन जीने की युक्तियाँ प्रदान की। संत शिरोमणि तुलसीदास, वात्सल्य एवं शृंगार के अमर गायक सूरदास, समाज सुधारक व उपदेशक कबीरदास, पथप्रदर्शक दयानंद सरस्वती जैसे विचारकों ने केवल भारत ही नहीं बल्कि संपूर्ण विश्व को मानवीय धर्म का पाठ पढ़ाया। आज भी दुनिया इनके ज्ञान का लोहा मानती है।
विज्ञान के क्षेत्र में अपने उच्चतम कौशल का सबूत प्रसिद्ध वैज्ञानिक डा होमी जहाँगीर भाभा ने दिया। वे 1953 ईस्वी में जेनेवा में आयोजित विश्व परमाणु वैज्ञानिकों के महासम्मेलन का सभापतित्तव कर दुनिया को अपनी ओर आकृष्ट किए थे। उनके द्वारा भारत में कम लागत परमाणु ऊर्जा का शुभारंभ कर दुनिया अपने देश से सीख लेने की सबक दी गयी थी।
मेरा देश संतो की नगरी है। यहाँ के ऋषि-मुनियों ने अपने तप का चमत्कार विश्व के लोगों को दिखाकर अचंभित ही नहीं किया था, बल्कि उन्हें ज्ञान-विज्ञान में आगे बढ़ने के आधार भी प्रदान किए थे। उनके द्वारा रचित प्राचीन शास्त्र – वेद, पुराण, उपनिषद दुनिया के विज्ञान को आज भी प्रेरित ही नहीं करता, बल्कि उसके शोध कार्यों में मार्गदर्शन भी करता है। गणित के सबसे महत्वपूर्ण अंक शून्य का आविष्कार भी सर्वप्रथम भारत में ही किया गया था। सबसे पहले महर्षि आर्यभट्ट ने ही दुनिया को शून्य के उपयोग के बारे में समझाया था। इसके अलावा वेदों से हमें 10 खरब तक की संख्याओं के बारे में पता चलता है। सम्राट अशोक के शिलालेखों से पता चलता है कि हमें संख्याओं का ज्ञान बहुत पहले से था। भास्कराचार्य की लीलाबती में लिखा हुआ है कि “जब किसी अंक में शून्य से भाग दिया जाता है तब उसका फलक्रम अनंत आता है।“ भारत ने ज्योतिष शास्त्र के रूप में दुनिया को एक अनोखी भेंट दी है। यह ज्योतिष की गणनाओं से ही पता चला है कि पृथ्वी गोल है और इसके घूमने से ही दिन रात होते हैं। आर्यभट तो सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण होने के कारण भी जानते थे।
शारीरिक स्वास्थ्य के लिए आज पूरी दुनिया भारतीय योग पद्धति को ही स्वीकारा है। 21 जून को विश्व योग दिवस के रूप में मनाने भी लगा है। अनेक भारतीय योगाचार्य योग की शिक्षा सम्पूर्ण विश्व को देने में तल्लीन हैं। योग का प्रारंभ भगवान शंकर के बाद प्राचीन ऋषियों द्वारा भारत में ही की गयी थी। महर्षि पतंजलि ने उसे लिपिबद्ध कर संपूर्ण मानव जातियों को सुख पूर्वक, निरोग काया में जीने की युक्तियां बतायी। भारत ने ही संपूर्ण मानवता के लिए कहा –
‘‘सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यन्ति, मॉ कश्चित् दुख भाग् भवेत्।।’’
सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय के साक्षी बनें और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े। इतना ही नहीं भारत ने ‘मृत्योर्मा अमृतं गमय’, मृत्यु से अमरता की ओर ले जाने की भी आकांक्षा कर डाली। इसने केवल कल्पना की उड़ान नहीं भरी, बल्कि वास्तविक धरातल पर संपूर्ण मानव जाति के लिए राह सुगम किया।
वर्तमान समय में गौरवशाली देश में चल रहे डिजिटल भारत अभियान, आत्मनिर्भर भारत और वैश्विक डिजिटल अर्थव्यवस्था ने संपूर्ण विश्व की दृष्टि को अपनी ओर खींची है। अन्य राष्ट्र इन क्षेत्रों में भारत की बढ़ती भागीदारी से प्रेरित हुये हैं।
आदिकाल से लेकर वर्तमान समय तक भारत, मानवीय संवेदनाओं के प्रति सर्वाधिक आग्रही रहा है। यह अहम् में नहीं बल्कि वयम् में जीना सीखा है। प्रेम, अपनापन, स्नेह, त्याग, सहिष्णुता, समानता, परोपकारिता को यह अपना सिद्वांत बनाया है। भारत की यही विचारधार दुनिया को अपने समक्ष माथा नवाने और सीखने के लिए मजूबर करता है। तभी तो दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा चेन्नै के पूर्व जनसंपर्क अधिकारी गीतकार ईश्वर करूण ने राष्ट्र की वंदना करते हुए लिखा है –
‘‘विश्व की संस्कृति का जो सिरमौर है।
मुल्क ऐसा जहाँ में कहाँ और है।।’’