विश्वास जीतने का प्रतिफल- अमरनाथ त्रिवेदी 

Amarnath

जब विश्वास की डोर एक दूसरे के साथ बँधती है तब एक दूसरे के साथ कार्य करने की नयी संस्कृति का  सृजन होता है। जीवन को संजीदगी से  जीने और पुष्पित पल्लवित होने के लिए  योग्य व्यक्ति पर विश्वास करना ही पड़ता है। परंतु जो इंसान विश्वास की परम्परा को तोड़कर अपने स्वार्थ के वशीभूत हो किसी की उपेक्षा करता है तो उसके संबंध बिगड़ते हैं। मन में तनाव पैदा होता है और दिल के सुकून गायब हो जाते हैं। अनुकूलता की स्थिति को प्रतिकूलता में बदलते देर नहीं लगती।

   संतोष एक निहायत गरीब लड़का था। उसके पिता के गुजरे वर्षों बीत गए थे, जिस कारण उसकी समुचित पढ़ाई न हो सकी परंतु उसमें समझदारी की कमी न थी। वह कम ही उम्र में जीवन की रपटीली राहों से वाकिफ हो चुका था। 

     पहले तो वह आजीविका चलाने के लिए गाँव में ही मजदूरी करना शुरू किया परन्तु बाद में वह पास के शहर में किसी सेठ के यहाँ नौकरी पकड़ ली। उसके भोलेपन और उसकी  कर्त्तव्यपरायणता ने सेठ के दिल पर आधिपत्य जमा लिया था। जब संतोष घर चला जाता तब उसके बिना सेठ का मन तनिक भी न लगता था। 

संतोष जब जीवन के चौबीस वसंत पार कर चुका था तब लड़की वाले रिश्ते के लिए आने लगे थे। उसकी माँ रामपरी ने अच्छी लड़की देख उसकी शादी उषा नामक लड़की से कर दी। उषा को पाकर संतोष खुश था।

इस अवसर पर संतोष के मालिक ने उसकी काफी सहायता की।

अब जब भी संतोष अपने घर से वापस आता अपनी पत्नी के द्वारा बना कोई- न- कोई पकवान जरूर लाता। सेठ सेठानी इसके इस व्यवहार से काफी खुश होते और जी भरकर उसकी पत्नी के बनाए व्यंजन की तारीफ भी करते। 

   संतोष को पाकर सेठ सेठानी काफी खुश थे। उन्हें एक दूसरा बेटा मिल चुका था। वह अपने मालिक का विश्वास जीत चुका था। उसके आने से सेठ की आमदनी बढ़ गई थी। अब कोई भी काम सेठ का संतोष के बिना न हो पाता। आपसी विश्वास का यह दौड़ अपनी रफ्तार में था।  

    सेठ का एक बेटा था जो बाहर पढ़ रहा था। जब वह पढ़ाई पूरी कर  घर आया तब उसने अपने पिता के कार्यों में सहयोग करना शुरू किया। कुछ दिनों तक तो सब ठीक चला परन्तु साल लगते ही संतोष का दिल वहाँ से  

उचट गया। पीयूष इन दिनों कुछ ज्यादा ही काम का बोझ उस पर लादने लगा था। जो संबंध विश्वास की डोर से बँधा था वह अब काम के बोझ तले अंतिम साँस गिन रहा था। 

   संतोष  एक दिन उस घर का काम छोड़ दूसरे दुकान में पकड़ लिया हालांकि उसे भी यह  कदम अच्छा न लगा परन्तु पीयूष के रुक्ष व्यवहार से मन ही मन वह  आहत हो चुका था । सेठ को संतोष का यहाँ  से जाना तनिक भी अच्छा न लगा। 

 संतोष के जाने के बाद पीयूष का कारोबार मंद पड़ चुका था ।

उसे समझ नहीं आ रहा था कि 

अब क्या करें।पिता ने पीयूष से कहा कि अब भी संतोष को वापस लाओ तभी तुम्हारी प्रगति होगी। वह भी अपने पिता की बात से सहमत था। वह अब संतोष की खोज में दुकान दर दुकान  जाने लगा। तीन दिन के बाद उसे एक दुकान में संतोष से भेंट हुई। उसने उससे कहा कि पिता ने बुलाया है आकर उनसे मिल लो ।

  संतोष को बड़ा आश्चर्य हुआ परन्तु वह सेठ की बात काट नहीं सकता था इसलिए वह कल होकर सेठ से मिला। सेठ ने उसे पुचकारते हुए कहा, पीयूष ने जो तुम्हारे साथ दुर्व्यवहार किया है वह अशोभनीय है। पीयूष ने भी उस समय अपनी गलती स्वीकार करते हुए संतोष को गले से लगा लिया और कहा कि अब ऐसा न होगा।

    जब यह बात सेठानी को पता चला तो वह फूली न समाई। वह भी संतोष को गले लगाया और कहा बेटा , अब कभी इस घर को न छोड़ना।

   संतोष को इन सब जज्बाती बातों से  नेत्रों से आँसू  निकल पड़े थे। कल होकर संतोष उस घर का पुनः  भरोसेमंद  नौकर बन चुका था। उसे पहले से भी अधिक इज्जत वहाँ  मिलने लगा था। विश्वास की खोई हुई निधि पुनः दोनों ओर प्राप्त हो चुकी  थी।

अमरनाथ त्रिवेदी 

पूर्व प्रधानाध्यापक 

उत्क्रमित उच्चतर माध्यमिक विद्यालय बैंगरा 

प्रखंड- बंदरा, जिला- मुजफ्फरपुर

0 Likes
Spread the love

Leave a Reply