वर्षा ऋतु प्रकृति परिवर्तन का प्रतीक-कुमकुम कुमारी ‘काव्याकृति’

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वर्षा ऋतु प्रकृति परिवर्तन का प्रतीक

          परिवर्तन प्रकृति का नियम है। प्रकृति कभी किसी एक जगह स्थिर नहीं रहती है। यह हमेशा बदलती रहती है। वर्षा ऋतु भी परिवर्तन को दर्शाती है। जिस तरह वसंत ऋतु के बाद ग्रीष्म ऋतु आती है उसी तरह ग्रीष्म ऋतु के बाद वर्षा ऋतु आती है और फिर शीत ऋतु का आगमन होता है। इस तरह मौसम एवं ऋतुएँ हमेशा बदलती रहती है।

वर्षा ऋतु एक ऐसी ऋतु है जिसका सभी को बेसब्री से इंतजार रहता है। इसे “मानसून” के नाम से भी जाना जाता है। भारतवर्ष में यह ऋतु लगभग तीन महीने तक रहती है – आषाढ़, श्रावण एवं भाद्रपद। तारीख के अनुसार देखें तो 15 जून से 15 सितंबर तक का समय वर्षा ऋतु कहलाता है। हमारे देश में मानसून अरब सागर से उठता है और सबसे पहले केरल राज्य में प्रवेश करता है और फिर धीरे-धीरे उत्तर भारत के विभिन्न हिस्सों में पहुँचता है और वर्षा के लिए उत्तरदायी होता है।

हम सभी को वर्षा ऋतु की प्रतिक्षा रहती है क्योंकि हमारा देश भारत एक गर्म जलवायु वाला देश है।ग्रीष्म ऋतु में मनुष्य से लेकर पशु-पक्षी और दूसरे जीव-जंतु सभी गर्मी से बेहाल रहते हैं। अत्यधिक गर्मी के कारण पेय जल एवं भोज्य पदार्थों की उपलब्धता कम हो जाती है जिससे बहुत सारे जीव-जंतुओं के जीवन पर संकट का बादल छाने लगता है। ऐसे में वर्षा ऋतु का आगमन सभी को काफी हर्षाती है।किसानों के लिए तो यह ऋत वरदान से कम नहीं है।

वर्षा ऋतु का सौंदर्य देखते ही बनता है। जैसे ही वर्षा शुरू होती है चारों ओर हरियाली छा जाती है जो तप्त धरा को काफी सुकून पहुँचाती है और हमें अनुपम हर्ष की प्राप्ति होती है। मयूर वनों में पंख फैलाकर नृत्य करते हैं। नदियाँ, तालाब, झील पानी से भर जाते हैं। किसान खेती कार्य में लग जाते हैं। जब मौसम अनुकूल होता है तो हमें काम करने में आनंद की अनुभूति होती है। पेड़-पौधों पर नई पत्तियाँ और फूल उग आते हैं। पपीहे और कोयल की मधुर तान सुन मन आनंदित हो उठता है। ऐसा लगता है कि कोई बेजान शरीर में जान फूक दिया हो।

हमारे देश में वर्षा ऋतु का विशेष महत्व है क्योंकि भारत एक कृषि प्रधान देश है और हमारे यहाँ कृत्रिम साधनों द्वारा सिंचाई की बहुत कमी है। इसलिए किसान वर्षा ऋतु में फसलों की बुआई करते हैं। वर्षा ऋतु से पृथ्वी का भूजलस्तर भी बढ़ जाता है।

वर्षा ऋतु हम साहित्यकारों को भी बहुत लुभाती है।बहुत सारे कवियों ने अपनी रचना में इस ऋतु के सौंदर्य का बहुत ही खूबसूरत अंदाज़ में वर्णन किया है। कालिदास रचित गीतिकाव्य “मेघदूत” में यक्ष उमड़ते हुए बादलों को अपना दूत बनाकर अपना संदेश अपनी प्रेमिका को भेजता है।

इसी प्रकार गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी रामचरितमानस में वर्षा का वर्णन करते हुए लिखा है-
वर्षा काल मेघ नभ छाये।
गर्जत लागत परम सुहाये।।
दामिनी दमक रही घन माहीं।
खल की प्रीति यथा थिर नाहीं।।
अर्थात:- काले मेघा बादलों को देखकर बहुत अच्छा लगता है। कौंधती हुई बिजली चाँदी की तरह चमकती है। बादल प्यासे वृक्षों की प्यास बुझाते हैं। यदि वर्षा नहीं होगी तो सब तरफ त्राहि-त्राहि मच जायेगा।

कुमकुम कुमारी ‘काव्याकृति’
शिक्षिका
मध्य विद्यालय बाँक, जमालपुर

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