एक लघुकथा
लकड़ा जेब से पिस्तौल निकालकर ज्यों ही गोलियाँ चलाता कि यकायक उसके हाथ रुक गये। यह क्या? ये तो विभाष सर हैं! भला इन्हें कैसे मार सकता है वह? इधर गोलियाँ चलने में विलंब होने पर मोटरसाइकिल चला रहे उसका संगी बुधना उसे ललकारा -” देखता क्या है ? चला गोलियाँ। आसपास कोई है भी नहीं।” दोनों के बीच वार्तालाप होते-होते विभाष सर पास आ चुके थे। हल्का अंधेरा होने पर भी वे लकड़ा को पहचान कर बोले -” क्या बात है लकड़ू? मुझे आता देख अपना चेहरा क्यों घुमा लिया? सब ठीक-ठाक तो है?” “जी , यूं ही कुछ काम से आया था ।”जैसे अकचकाकर बोला था वह। लकड़ा को याद है। जब वह गांव के स्कूल में पढ़ता था तब एक दिन उसने अपने सहपाठी सोनू का आपसी द्वन्द्व में सिर फोड़ दिया था।सोनू के घर वाले उसकी जान लेने पर उतारू हो गये थे, पर विभाष सर बीच-बचाव कर उसे बचा लिया था। यह भी कि एक बार जब वह जोरों से बिमार पड़ गया था और माँ के पास इलाज के एक भी रुपया नहीं था तब संवाद सुनते ही वे डाॅक्टर और दवाइयों के रुपये देकर उसकी जान बचाई थी। फिर तबादला से पहले तक वे पढ़ने के लिए हमेशा उसे प्रोत्साहित करते रहे,परन्तु उनके जाने के बाद वह ऐसा कुसंगत में पड़ा कि आज मात्र पच्चीस-पचास हजार रुपये की सुपारी लेकर लोगों की जान लेने लगा है। लकड़ा को अन्यमनस्क सा देख विभाष सर चले गये थे,पर इतना इख्तियार देते गये कि जरूरत पड़ने पर वह नि: संकोच उसके पास चला आये। विभाष सर के जाने के बाद लकड़ा की आत्मा जैसे चीत्कार उठी थी। आज तो उससे घोर अनर्थ हो जाता! पैसे के लिए इतना गिर चुका है कि वह अपने देवता स्वरूप विभाष सर की हत्या कर देता! नहीं, नहीं। अब वह हत्या-अपहरण हरगिज नहीं करेगा। चाहे राका उसकी जान ही क्यों नहीं ले ले। बुदबुदाते हुए अपनी पिस्तौल झारियों की ओर जोर से फेंककर बुधना से खुलकर बोला -” राका से बोल देना। आज के बाद लकड़ा कोई कुकृत्य नहीं करेगा।” बुधना अभी कुछ बोलता, वह तेजी से दूसरी ओर निकल चुका था।
संजीव प्रियदर्शी
फिलिप उच्च मा० विद्यालय, बरियारपुर