जीवन-संगिनी–श्री विमल कुमार “विनोद”

Bimal Kumar

संक्षिप्त सार-एक छोटा सा बालक जिसका नाम रामू है कि कहानी जो कि अभी अपनी शैशवावस्था की चहारदीवारी भी पार नहीं कर पाया था कि बदनसीबी ने इसे अपनी जाल में उलझा कर हृदय रोग के साये में डाल दिया जिसकी जीवन संगीनी उसकी माता तथा जीवन संरक्षक दवाइयां बनी। लगभग 15 वर्षों के बाद जब चिकित्सक के कहने पर कि अब तुम स्वस्थ हो गये हो,अब तुम्हें दवा खाने की जरूरत नहीं है,फिर भी वह बच्चा अपनी माँ से कहता है कि तुम मेरे पास मेरी जीवनदायिनी दवाओं को रख दो क्योंकि इसके बिना मैं जीवित नहीं रह पाऊँगा,जो कि मेरी जीवन संगिनी है,पर आधारित लघुकथा जिसे श्री विमल कुमार “विनोद”ने अपनी लेखनी से मूर्त रूप प्रदान करने का प्रयास किया है।
कथा विस्तार-एक ग्रामीण साधारण परिवार में एक ऐसे बालक ने जन्म लिया है,जो कि अभी अपनी शैशवावस्था भी पार नहीं कर पाया था कि एक वर्ष के अंदर ही दुर्भाग्यवश वह हृदय-रोग से ग्रसित हो गया।अपनी साधारण जिन्दगी जीने वाले उसके माता- पिता जो कि बदनसीबी पर रोते हुये चिकित्सक के पास ले जाना पड़ा जहाँ चिकित्सक के द्वारा उसके हृदय की सर्जरी की गई तथा लगातार उसके दवाई के सेवन की जरूरत बतायी गई।उसके बाद पुनः उसकी सर्जरी किये जाने के चलते उसको लगातार दवा का सेवन करना पड़ रहा है।
वह बालक अपने जीवन में लगातार क्रमिक गति से जीवन व्यतीत करता गया तथा जीवन में दवा का सेवन करता ही रहा।उसे
चिकित्सक के परामर्श के अनुसार लगातार दवा का सेवन करते रहना है।इसके बाद से वह बालक लगातार दवा का सेवन करता ही रहता है।आगे चलकर जब चिकित्सक के द्वारा सलाह दी जाती है कि अब उस बालक को लगभग पन्द्रह वर्ष तक दवा खाने की जरूरत नहीं पड़ सकती है तथा उस बालक को दवा खाने से रोक दिया जाता है,लेकिन उस बच्चे के जीवन में एक भय सा बना रहता है कि हम दवा के बिना निर्भर नहीं रह पायेंगे,जिससे वह अपनी माँ को कहता है कि मैं अपने जीवन में बिना दवा के नहीं रह पाऊँगा।चिकित्सक के द्वारा यदि दवा खाने से रोक भी दिया गया फिर भी वह बालक अपनी माँ को उसके दवा पास में रख देने को कहता है।
इस लघुकथा के लेखक ने अपनी कल्पना का सहारा लेते हुये यह बताने की कोशिश की है कि “जीवन-संगिनी”का अर्थ सिर्फ
पत्नी ही नहीं ,बल्कि वह माँ भी है,जिसने जन्म देने के बाद से उसको लगातार लालन-पालन करके एक सुन्दर व्यक्तित्व का निर्माण करने का प्रयास किया क्योंकि उस माँ की सेवा तथा लालन-पालन के बिना शायद उस बालक का विकास होना असंभव ही नहीं नामुमकिन भी था।
दूसरी बात यह भी है कि जिस व्यक्ति को लगातार बिमारी के कारण से दवा खाने की आदत सी बन गई है,वैसी स्थिति में लोगों को मनोवैज्ञानिक रूप से लगता है कि वह बिना दवा के दुनियाँ में अपने अस्तित्व को बनाये नहीं रख सकता है,इसलिये मेरे पास तुम मेरी जीवन संगिनी दवाओं को रख दो।उसकी माता जी कहती है नहीं बेटा,डाॅक्टर साहब अब दवा खाने मना किये हैं,अब तुम पूरी तरह से स्वस्थ हो गये हो।तब रामू कहता है कि माँ तुम और मेरी वह दवाइयां ही मेरी जीवन संगिनी है।
आगे चलकर जब वह बालक बड़ा होकर विवाह के योग्य हो जाता है तो उसकी शादी बगल के गाँव की”रानी”से हो जाती है।उसके परिवार के लोग कहते हैं कि रामू देखो तुम्हारी जीवन-संगिनी कितनी खुबसूरत है,जीने में बहुत मजा आ जायेगा और वह उसके साथ अपना पारिवारिक जीवन प्रारंभ करता है।जीवन लगातार मजे में बीत रही थी कि इसी बीच उसकी माँ जिसकी उम्र लगभग पचास वर्ष हो चुकी है कुछ लोगों के साथ तीर्थयात्रा पर निकल जाती है।इस बीच एक दिन रामू की पत्नी”रानी”रामू के तकिया के पास रखी दवा को निकाल कर फेंक देती है।
दुर्भाग्य या किस्मत का दोष देखिये रामू की तबीयत फिर पहले जैसे ही खराब हो जाती है तथा वह अपनी पत्नी को कहता है कि मेरे उन दवाओं को मंगा दो लेकिन उसकी पत्नी रामू के बातों की अनदेखी करके कुछ खरीदने बाजार चल जाती है।इसी बीच रामू की तबीयत बिगड़ती जाती है तथा अपने पड़ोसी को अपनी दवा लाने को कहता है।चूँकि रामू एक साधारण तथा सज्जन व्यक्ति है, जिसके कारण से उसके पड़ोसी उसकी दवा को लाने से इन्कार नहीं करते है तथा रामू से दवा की पर्ची माँगता है,जिसे वह किसी तरह से खोजकर दे देता है तथा पड़ोसी द्वारा दवा खरीद कर ला दिया जाता है।जिसे खाने के बाद रामू की तबीयत ठीक होनी लगती है, इसके बाद रामू किसी तरह अपने चिकित्सक को फोन करके बुलाता है तथा चिकित्सक आकर रामू का इलाज करते हैं।इसके कुछ देर बाद ही रामू की माता जी तीर्थ यात्रा से वापस घर लौट कर आ जाती है।
अंत में,इस लघुकथा के लेखक को ऐसा लगता है कि दवा,माता-पिता तथा पत्नी सभी जीवन के लिये आवश्यक है।सबों का इस संसार में अलग-अलग अपना महत्व तथा स्थान है।इन सभी चीजों के बाबजूद भी “दवा”को जीवन का एक प्रमुख “जीवन संगीनी” माना जा सकता है,जिसके बिना रामू तथा किसी भी व्यक्ति का जीवन जीना मुश्किल हो सकता है।
आलेख साभार-श्री विमल कुमार “विनोद” प्रभारी प्रधानाध्यापक राज्य संपोषित उच्च विद्यालय पंजवारा,
बांका(बिहार)

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