आलोचना एवं समालोचना : एक दृष्टिकोण- सुरेश कुमार गौरव

परिचय : मानव समाज विचारों, अभिव्यक्तियों और रचनात्मक प्रवृत्तियों का एक जीवंत समुच्चय है। इन प्रवृत्तियों को दिशा देने, संवारने और उनके मर्म तक पहुँचने हेतु जिन उपकरणों का सहारा लिया जाता है, उनमें आलोचना एवं समालोचना का विशेष स्थान है। यद्यपि दोनों शब्द समान प्रतीत होते हैं, किंतु इनकी प्रकृति, दृष्टिकोण और प्रयोजन में सूक्ष्म अंतर है।

आलोचना : एक समीक्षात्मक दृष्टि

‘आलोचना’ का सामान्य अर्थ होता है- किसी कृति, विचार, व्यवहार या प्रवृत्ति की तटस्थ समीक्षा।

आलोचना का उद्देश्य होता है — अच्छाइयों और कमियों की पहचान, निर्माणात्मक सुझाव, रचनात्मक सुधार के अवसर प्रस्तुत करना।

आलोचना तब सार्थक होती है जब वह निष्पक्ष, उद्देश्यपूर्ण और विकासोन्मुख हो। परंतु जब आलोचना नकारात्मक, कटु, या विद्वेषपूर्ण हो जाती है, तब वह विनाशक रूप धारण कर लेती है। अतः आलोचक को अपने विचारों में संयम और संतुलन रखना चाहिए।

समालोचना : साहित्यिक विश्लेषण की कला
‘समालोचना’ शब्द का तात्पर्य है — किसी साहित्यिक कृति की समीक्षात्मक सराहना और मूल्यांकन। यह साहित्य की भाषा, भाव, शिल्प, शैली, छंद, और संदर्भों का गंभीर विश्लेषण है।

समालोचना के माध्यम से:- रचनाकार की सोच व दृष्टिकोण को समझा जाता है, कृति के सामाजिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक प्रभावों को उजागर किया जाता है, साहित्यिक मूल्यों की प्रतिष्ठा होती है। समालोचना का दायित्व केवल त्रुटियाँ ढूँढना नहीं, बल्कि कृति के सार को पकड़कर उसकी आत्मा तक पहुँचना भी होता है।

दृष्टिकोण का अंतर : आलोचना बनाम समालोचना-

आधुनिक सन्दर्भ में प्रासंगिकता : आज के डिजिटल युग में आलोचना का रूप सोशल मीडिया, ब्लॉग्स, मंचीय टिप्पणियों तक पहुँच गया है।
ऐसे में रचनात्मक आलोचना की आवश्यकता और अधिक बढ़ गई है, जिससे समाज, साहित्य और सृजन के मानक ऊँचे हों।
समालोचना भी अब केवल अकादमिक दायरों में सीमित न रहकर साहित्यिक विमर्शों का आधार बन चुकी है।

उपसंहार : आलोचना और समालोचना दोनों ही सृजन के दो सशक्त आयाम हैं। इनका उद्देश्य न तो किसी को गिराना है, न ही केवल प्रशंसा करना। एक जोर था जब आलोचनाओं और समालोचनाओं के दौर थे। अब इसकी बात आधार हीन हो गई लगती है। लोग ,सृजनकार ,कवि आदि इन्हें भूलते जा रहे हैं। इनका मूल मंत्र है — “सत्य के प्रकाश में वस्तुपरक विश्लेषण।”
यदि आलोचना में आत्मीयता हो और समालोचना में सूझ-बूझ, तो ये दोनों साहित्य और समाज को निखारने की अमूल्य विधाएँ हैं।

लेखक संदेश : “कहना सरल है, समझना कठिन; पर समझकर कहना ही सच्ची आलोचना और समालोचना है।”

सुरेश कुमार गौरव, प्रधानाध्यापक

उ.म.वि.रसलपुर, फतुहा, पटना (बिहार)

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