अभिनय की जन्मभूमि बाल्यावस्था
बच्चा मनुष्य का पिता होता है। बच्चों के दिलों में भगवान का स्थान होता है। मनोवैज्ञानिक ढंग से यह सत्य है कि बच्चे ज्ञान की तलाश में तोड़ो जोड़ों की नीति अपनाते हैं। बाल हठ एवम दुनियाँ का अवलोकन कर उससे प्राप्त गुण एवम अवगुण का नकल करते हैं। अभिनय की शुरुआत भी बचपन शब्द से हुई है। इसलिए हमलोग कहते हैं कि अभिनय की जन्म भूमि बाल्यावस्था है। इसको समझने के लिए एक उदाहरण लेते है-
एक मुन्ना नाम का छोटा बच्चा आंगन में खेल रहा था। उस वक़्त उसके पिता जी बाहर से घर पर लौटते हैं और अपना मोबाइल आंगन में मौजूद टेबल पर रख किसी काम से अंदर चले जाते हैं। मुन्ना ज्ञान का जिज्ञासा लिए टेबल पर से मोबाइल उठा उससे से खेलने लगता है। खेलने के क्रम में ही मोबाइल मुन्ना के हाथ से छूट जाता है और मोबाइल टूट जाता है। पिता के डर से मुन्ना मोबाइल को छुपा देता है। मुन्ना के पिता आंगन में आते हैं और मोबाइल टेबल पर नहीं रखा देख मुन्ना से पूछते हैं- मुन्ना मेरा मोबाइल देखा है। मुन्ना बहुत ही मासूमियत लिए कहता है- नहीं पिताजी, मैं नहीं जानता हूँ कि मोबाइल कहाँ पर रखा है। मुन्ना का मासूमियत लिए पिताजी से यह कहना कि मैं नहीं जानता हूँ, अभिनय की शुरुआत यही से हुई। मुन्ना को कोई अभिनय का प्रशिक्षण नहीं दिया गया लेकिन वह अपने पिताजी के डांट से बचने के लिए ऐसा मुँह बना मासूमियत के साथ कहा- मैं नहीं जानता हूँ। अपने पिता को विश्वास में लेने के लिए अभिनय किया। इसलिए हमलोग कहते है, अभिनय की शुरुआत बाल्यावस्था से हुई। महाभारत, रामायण, गीता एवम अन्य धार्मिक किताबों में वर्णित बाल्यावस्था में मौजूद अभिनय तत्व बलराम-कृष्ण, सुदामा-कृष्ण, राम-लक्ष्मण, भगवान शिव, भगवान गणेश-कार्तिक के बाल कीड़ा में देखने को मिलता है। विद्यालय में भी बच्चे शिक्षकों के अच्छे गुण-अवगुण का अवलोकन कर नकल करते हैं। यह भी अभिनय है। छोटे- छोटे मासूम बच्चों को कला कौशल के गुण से भर दिया जाय तो कल के छात्र-छात्राएँ गुणवत्ता लिए अभिनेता या अभिनेत्री होंगे।
सुधांशु कुमार चक्रवर्ती
हाजीपुर वैशाली (बिहार)